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संसद में पक्ष-विपक्ष का दुश्मन बन जाना खतरनाक संकेत

With the passing of the motion of thanks on the President’s address, the proceedings of the Parliament were adjourned indefinitely on 3 July. After the general elections, the proceedings of the 18th Lok Sabha began on 24 June, which were adjourned indefinitely on 2 July after Prime Minister Narendra Modi’s reply to the President’s address, and the 264th session of the Rajya Sabha was adjourned indefinitely on 3 July after the Prime Minister’s reply. But the kind of battle that took place between the ruling party and the opposition in this session of Parliament, and especially in the Lok Sabha, rang a serious alarm bell for the future parliamentary democracy. In the Lok Sabha, the two alliances named NDA and India were behaving like two bitter enemies instead of behaving like the ruling party and the opposition, and the presiding officer was not playing the role of Panch Parmeshwar. Forgetting parliamentary conduct and traditions, responsible leaders were talking less about national interest and more about personal venom against each other. Therefore, it can be said that this unfortunate situation has arisen in the Parliament due to clapping with both hands, which is a very bad sign for the coming sessions.- JSRawat


-जयसिंह रावत
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पास कराने के साथ ही संसद की कार्यवाही 3 जुलाइ को अनिश्चितकाल के लिये स्थगित हो गयी। आम चुनाव के बाद 18वीं लोकसभा की कार्यवाही 24 जून को शुरू हुई थी जो कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उत्तर के बाद 2 जुलाइ को तथा राज्यसभा का 264 वां सत्र प्रधानमंत्री के उत्तर के बाद 3 जुलाइ को अनिश्चितकाल के लिये स्थगित हो गया। लेकिन पक्ष और विपक्ष के बीच संसद के इस सत्र में और खासकर लोकसभा में जिस तरह का संग्राम हुआ वह भविष्य के संसदीय लोकतंत्र के लिये एक गंभीर खतरे की घंटी बजा गया। लोकसभा में एनडीए और इंडिया नाम के दो गठबंधन पक्ष और विपक्ष के जैसे आचरण करने के बजाय दो घोर शत्रुओं का जैसा आचरण कर रहे थे और पीठासीन अधिकारी पंच परमेश्वर की भूमिका नहीं निभा रहे थे। जिम्मेदार नेता संसदीय आचरण और परम्पराओं को भूल कर राष्ट्रहित की बातें कम और एक दूसरे के खिलाफ व्यक्तिगत जहर ज्यादा उगल रहे थे। इसलिये कहा जा सकता है कि दोनों हाथों से ताली बजने के कारण संसद में यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा हुयी है जो आने वाले सत्रों के लिये बहुत बुरा संकेत है।

टकराव स्पीकर के चुनाव से हुआ शुरू

संसद में टकराव स्पीकर के चुनाव को लेकर ही शुरू हो गया था। सत्ता पक्ष विपक्ष को यह संदेश देना चाहता था कि तुम चाहे हमारा आधार और लोकप्रियता घटने का जितना भी प्रचार करो और बहुमत न मिलने का चाहे जितना भी ढोल क्यों न पीट लो मगर सरकार हमारी ही बन गयी और तुम सब मिल कर भी एक अकेली भाजपा के बराबर नहीं पहंुच सके। सत्ता पक्ष पहले ही मंत्रियों को पुराने विभाग दे कर संदेश दे चुका था कि सब कुछ वही है और सरकार का इकबाल उतना ही बुलंद है। इसलिये स्पीकर भी वही रहेंगे जो कि मोदी-2 में थे। लेकिन विपक्ष सत्रहवीं लोकसभा के कटु अनुभव नहीं भूला था। पिछली बार विपक्ष के जो 140 सांसद संसद से निलंबित किये गये उनमें 100 सांसद लोकसभा के थे। यही नहीं विपक्ष को स्पीकर ओम बिड़ला से एक नहीं बल्कि अनेक शिकायतें थीं। इसलिये विपक्ष का ओम बिड़ला के नाम से बिदकना स्वाभाविक ही था। लेकिन टकराव की असली वजह इस बार विपक्ष के और ताकतवर बन कर उभरने की तथा सत्ता पक्ष और खास कर भाजपा के कमजोर होने की थी। इसलिये विपक्ष भी सत्ता पक्ष को अपनी ताकत का अहसास दिलाने के लिये डिप्टी स्पीकर की मांग पर अड़ा रहा। बहरहाल लोकसभा में महज ध्वनिमत से ओम बिड़ला स्पीकर चुन लिये गये।

संविधान का मुद्दा भी गरमा गया माहौल

चूंकि विपक्षी इेडिया खेमे ने आम चुनावों के दौरान संविधान को खतरे का मुद्दा बनाया था और उसे कुछ हद तक इसका लाभ भी मिला था, इसलिये विपक्षी सदस्यों ने उस मुद्दे को जिन्दा रखने के लिये संविधान की प्रतियां हाथों में लेकर लोकसभा सदस्यता की शपथ ली। जो कि सत्ता पक्ष को नागवांर गुजरी। इसलिये उसने भी राष्ट्रपति और पीठासीन अधिकारियों के मार्फत 1975 में लगी इमरजेंसी की याद विपक्ष को दिला दी। इसने आग में घी डालने का काम किया। सर्वविदित है कि राष्ट्रपति का भाषण कैबिनेट द्वारा तैयार होता है और उसी की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति द्वारा पढ़ा जाता है। लेकिन स्पीकर या राज्यसभा के सभापति की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती। लोकसभा में स्पीकर का एक पार्टी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम लेकर इमरजेंसी का निन्दा प्रस्ताव पढ़ना विपक्ष और खास कर विपक्ष के सबसे बड़े दल को नागवार गुजरना स्वाभाविक ही था। बात यहीं समाप्त नहीं हुयी। लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का भाषण प्रधानमंत्री को उकसाने के लिये काफी था और उसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जिस तरह राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को कांग्रेस पार्टी और खास कर राहुल गांधी पर केन्द्रित किया उसका जवाब उन्हें तत्काल ही सदन में भारी हूटिंग से मिल गया। पिछली बार विपक्ष बहुत कमजोर और बंटा हुआ था इसलिये अक्सर सत्ता पक्ष के भारी बहुमत की हूटिंग से विपक्ष के नेताओं की आवाजें दब जाया करतीं थीं। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान विपक्ष ने अपनी आवाज के बढ़े हुये वॉल्यूम का अहसास जानबूझ कर प्रधानमंत्री को दिलाया। हालांकि इसका जवाब भी विपक्ष को आने वाले सत्रों में अवश्य मिलेगा।

पीठासीन अधिकारियों की राजीतिक निष्ठा ने भी बिगाड़ा माहौल

संसद का महौल बिगाड़ने के लिये राजनीतिक दलों के साथ ही पीठासीन अधिकारियों का पक्षपातपूर्ण रवैया भी जिम्मेदार रहा है। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने पहले ही सत्र में संकेत दे दिया कि वे न तो बदलने वाले हैं और लोकतंत्र से ज्यादा उनकी निष्ठा पद का सुख प्रदान कराने वालों के प्रति है। बीते सत्र के दौरान न तो विपक्ष ने सदन के नेता प्रधानमंत्री का लिहाज किया और ना ही नेता सदन ने विपक्ष के नेता का लिहाज किया। शोले फिल्म की मौसी के जैसे उदाहरणों ने चर्चा का स्तर गिरा दिया। यही नहीं एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये ऐतिहासिक तथ्योें को इस तरह पेश किया गया जिससे लगा कि उदाहरण देने वालों को इतिहास का ज्ञान नहीं। लोकसभा में नेता विपक्ष के भाषण के रिकार्ड में जिस तरह काटपीट हुयी वह नेता प्रतिपक्ष की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ही था।

विधान सभाओं में हो चुका है खून खराबा

संसद में भारी हंगामें और पक्ष-विपक्ष की बीच बहुत तीखी तकरार के कई मौके आ चुके हैं। लेकिन ऐसी नौबत शायद ही पहले कभी आयी हो। राज्य विधानसभाओं में पक्ष विपक्ष की दुश्मनी के चलते अनेक बार हिंसक घटनाऐं हो चुकी हैं। 1 जनवरी 1988 को तमिलनाडु विधानसभा में जानकी रामचंद्रन ने विश्वास मत के लिए विशेष सत्र बुलाया था। अपने पति एमजीआर के निधन के बाद वह मुख्यमंत्री बनीं थीं। लेकिन ज्यादातर विधायक जयललिता के साथ थे। इस दौरान सियासी गठजोड़ के बीच विधानसभा की बैठक में माइक और जूते चले। सदन में लाठीचार्ज भी करना पड़ा। इसी तरह 25 मार्च 1989 तमिलनाडु विधानसभा में ही बजट पेश करने के दौरान दंगे जैसे हालात पैदा हो गए। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस दौरान जयललिता की साड़ी फाड़ने की कोशिश की गयी। उत्तर प्रदेश विधानसभा में 22 अक्टूबर 1997 में दंगा भड़क गया, जिसमें विधायकों ने एक-दूसरे पर फेंकने के लिए माइक्रोफोन, कुर्सियाँ और अन्य सामान उठा लिया। सुरक्षाकर्मियों ने अध्यक्ष की ढाल के रूप में डेस्क के ऊपरी हिस्से को उखाड़ दिया। विधायकों के बीच हुई हिंसा इस कदर बढ़ी जिसमें स्पीकर समेत कई विधायक घायल भी हुए। महाराष्ट्र विधानसभा में 10 नवंबर 2009 को सपा के विधायक अबु आजमी ने हिंदी में शपथ ली तो एमएनएस के चार विधायक हिंसक हो गए। इसके बाद चार साल तक इन विधायकों को सस्पेंड किया गया। केरल विधानसभा में 13 मार्च 2015 केरल विधानसभा में बजट पेश करने के दौरान विपक्षी दलों ने हंगामा करते हुए हाथपाई शुरु कर दी। इस दौरान दो विधायक घायल हो गए। अगर संसद में दोनों पक्षों का नजरिया नहीं बदला तो राज्य विधान सभाआओं में हुयी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की नौबत संसद में भी आ सकती है।

संसदीय आचरण का पालन दोनों पक्षों लिये जरूरी

संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले विवादास्पद विषयों पर भी बहस मर्यादा का उल्लंघन न करे इसलिये संसद द्वारा ही सदस्यों के लिये आचार संहिता तैयार की जाती है। इसीलिये कहा जाता है कि संसद किसी की इच्छा या राजनीतिक सहूलियत से नहीं बल्कि नियमों से चलती है। कुछ स्थापित संसदीय रीति-रिवाज, परंपराएं, शिष्टाचार और नियम हैं जिनका पालन सदस्यों को सदन के अंदर और बाहर दोनों जगह करना आवश्यक होता है। ये न केवल संसद में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों और पीठासीन अधिकारियों के निर्णयों और टिप्पणियों पर आधारित होते हैं बल्कि संसद की पिछली प्रथाओं, परंपराओं और उदाहरणों पर भी आधारित होते हैं, जिन्हें सदस्य संसद में अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानते हैं। ये सभी वही हैं, जिन्हें तकनीकी रूप से संसदीय शिष्टाचार के रूप में जाना जाता है। सदन को अपने सदस्यों को सदन में या बाहर उनके कदाचार के लिए दंडित करने का अधिकार है। सदस्यों द्वारा किए गए कदाचार या अवमानना के मामलों में, सदन चेतावनी, फटकार, सदन से निकासी, सदन की सेवा से निलंबन, कारावास और सदन से निष्कासन के रूप में दंड दे सकता है।

 

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