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तिलाड़ी काण्ड: कर्नल सुन्दर सिंह को हटा कर नत्थू सजवाण से करवाया गया इतना बड़ा काण्ड

—-जयसिंह रावत
जनरल डायर ने 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में खून की होली जो खेली कि टिहरी नरेश के बजीर पं. चक्रधर जुयाल को ठीक 11 साल साल बाद इस विभत्स काण्ड की याद आ गयी और उसने भी उत्तरकाशी की यमुनोत्री घाटी के तिलाड़ी के मैदान में बगावत पर उतारू रंवाल्टों को सबक सिखाने के लिये जलियांवाला बाग काण्ड की पुनरावृत्ति कर डाली। बंदियों को छुड़ाने और एसडीएम को ग्रामीणों द्वारा बन्दी बनाये जाने की इस घटना की जानकारी मिलते ही दीवान चक्रधर जुयाल आग बबूला हो गया था। राजा यूरोप की यात्रा पर था। इसलिये दीवान ने सुंयक्त प्रान्त के गर्वनर से आन्दोलन से पिटने के लिये जरूरत पड़ने पर शस्त्रों का प्रयोग करने की अनुमति ले ली और वह सेना सहित रवांईं के लिये कूच कर गया।

उस समय सेना प्रमुख कर्नल सुन्दर सिंह था लेकिन उसने जनता का दमन करने से इंकार कर दिया तो दीवान ने उसे पद से हटाने के साथ ही देश निकाला देकर नत्थूसिंह सजवाण को नया सेना प्रमुख बना दिया था। 30 मई 1930 को तिलाड़ी के चांदाडोखरी में आजाद पंचायत की बैठक चल ही रही थी कि राजा के सैनिकों ने तीन ओर से आन्दोलनकारियों को घेर लिया और दीवान के आदेश पर विभत्स गोली कांड को अंजाम दे दिया। इस कांड में मरने वालों की संख्या के बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं। राजदरबार की ओर से केवल 4 मौतों की पुष्टि हुयी जबकि सुन्दर लाल बहुगुणा के एक लेख ( हिमक्रीट पत्रिका) के अनुसार 17 लोग इस कांड में शहीद हुये। 28 जून 1930 को गढ़वाली अखबार में छपे समाचार के अनुसार 100 से अधिक लोग मारे गये थे। 26 जनवरी 1956 के कर्मभूमि के अंक में छपे भैरवदत्त धूलिया के लेख में भी 17 लोगों के मारे जाने तथा सैनिकों द्वारा कुल 600 गोलिया चलाये जाने की बात कही गयी है।

इस कांड में कुल 68 लोगों पर धारा 125, 480 तथा 412 के तहत मुकदमा चलाया गया। इन राजबंदियों को जुलाई 1931 तक एक साल से लेकर 20 साल तक की सजा हुयी और इनमें से 15 आन्दोलनकारी कैदियों की मृत्यु जेल में ही हुयी। ( रतूड़ीः गढ़वाल का इतिहास पृष्ठ 319 ) रंवाई कांड के समाचार ’इंडियन स्टेट रिफार्मर’, ’गढ़वाली’, ’अभय’, हिन्दू संसार’ और ’कर्मभूमि’ आदि कई अखबारों में छपे। इनमें से ’इंडियन स्टेट रिफार्मर’, ’गढ़वाली’, ’अभय’, हिन्दू संसार’ के संपादकों पर दीवान चक्रधर जुयाल ने मानहानि के मुकदमें भी राज्य से बाहर देहरादून में दायर किये। गढ़वाली के संपादक विश्वभर दत्त चंदोला को इस मामले में 31 मार्च 1933 से लेकर 3 फरबरी 1934 तक देहरादून में जेल की सजा भी भुगतनी पड़ी। इस जेल प्रवास का उनको तथा उनके अखबार ’गढ़वाली’ को काफी यश मिला। हम कह सकते हैं कि ’गढ़वाली’ अखबार की तरक्की हेतु इस जेल प्रवास को लम्बे समय तक भुनाया जाता रहा। इस मामले में ’इंडियन स्टेट रिफार्मर के सम्पादक को भी सजा हुयी मगर उनको तथा उनके अखबार को उसका कोई लाभ नहीं मिला। जबकि ’गढ़वाली’ अखबार न केवल राजभक्त अपितु अंग्रेज भक्त भी था और उसके दीर्घ जीवन के पीछे यही भक्ति खुराक का काम करती  रही। इस कांड के बाद राजा नरेन्द्रशाह ने असली खलनायकों को तो दंडित नहीं किया मगर पश्चाताप स्वरूप 1936 में ग्राम सुधार के लिये एक लाख की राशि मंजूर करने के साथ ही ग्रामीणों पर 297358 रुपये की तकाबी की बकाया राशि तथा लगभग 37 लाख की बकाया राजस्व और दंड राशि भी माफ कर दी।

सन् 1939 में दीवान चक्रधर जुयाल भी शाही सेवा से रिटायर हो गया। रवांईं काड के बाद टिहरी राज्य में आठ सालों तक लगभग खामोशी ही रही। जून 1938 में मानवेन्द्र नाथ राय की अध्यक्षता में ऋषिकेश में एक राजनीतिक सम्मेलन हुआ जिसमें टिहरी की प्रजा के कष्टों पर विस्तार से चर्चा हुयी। सम्मेलन में बेगार और प्रभु सेवा उठाने, लगान तथा पौण्टोटी कम करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल करने की मांग की गयी।

( यह लेखांश  लेखक की अपनी पुस्तक *टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह * शीर्षक वाली पुस्तक से उनकी अनुमति से साभार लिया गया है. इसका अनधिकृत उपयोग क़ानूनी अपराध माना जायेगा।  —एडमिन /मुख्य संपादक- उषा रावत )

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