असलियत छिपाने के लिए मोहक विशेषणों का प्रयोग करते हैं हम
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा-
असलियत को विशेषणों के आवरण में छिपाकर वार्तालाप करने की हमारी आदत बहुत पुरानी है, गीता इसका प्रमाण है। किसी और समीक्षक ने नहीं बल्कि स्वयं गीता के रचनाकार महर्षि वेदव्यास ने पहले ही श्लोक में यह “धर्मक्षेत्र” वाला विशेषण धृतराष्ट्र के ही मुँह से कहलवा कर दूसरे समीक्षकों को कुछ बोलने की कोई गुंजाईश ही नहीं छोड़ी, क्या दूसरा कह सकता था ?
धृतराष्ट्र जो स्वयं ही दुखी होकर व्यंग्य में कुरुक्षेत्र को र्मक्षेत्र “कह दिया जो वास्तव में इस धर्मक्षेत्र वनाम कुरुक्षेत्र के जन्मदाता थे वह दुःखी होकर संजय से पूछने लगे -यार भाई संजय ! यह कुरुक्षेत्र की भूमि कभी सचमुच धर्मक्षेत्र थी जो आज युद्ध के मैदान में बदल रही है इसके लिए किसी दूसरे को दोष कैसे दूँ ? तुम्ही बताओ मेरे लड़के और मेरे भाई के लड़के इस समय कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं ?-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ १-१॥
गीता के टिप्पणीकारों ने इस “धर्मक्षेत्र” के विषय में इतना कुछ लिख दिया जो शायद आवश्यकता से अधिक है -क्योंकि हम सब जो गीता पढ़ते हैं, अपने व्यवहारिक जीवन में धृतराष्ट्र की तरह असलियत छिपाने के लिए मोहक और आकर्षक विशेषणों का प्रयोग करते हैं, प्रमाण सामने है ।
अब आप आज के परिपेक्ष्य में इस श्लोक को पढ़ें तो आप पाएंगे कि सत्ताधारी वर्ग स्वयं को *धर्म* का रक्षक मानते हैं और अपने विरोधियों को धर्म का दुश्मन। रोज ही किसी न किसी मंच पर यह महाभारत चल रहा है, चाहे वह संसद हो या संसद से बाहर कोई दूसरा सार्वजनिक मंच।