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भूकम्प को आपदा हम बनाते हैं और सारा दोष भूकंप पर डाल देते हैं

 


-जयसिंह रावत
भूकम्प के ताजा झटकों ने उत्तराखण्ड से लेकर दिल्ली तक को दहला दिया है। लोगों को बड़े भूचालों का डर सताने लगा है। जबकि भूचाल कभी किसी को नहीं मारता है। हमको मारता वह भवन है जिसे हम अपने आश्रय के लिये या सुरक्षित रहने के लिये बनाते हैं। फिर भी जो मकान मारक साबित होता है हम उसके लिये विलाप करते हैं और सारा दोष भूकंप पर डाल देते हैं। अगर हम प्रकृति के साथ जीना सीखें तो क्या भूचाल या क्या बाढ़? हमें कोई भी आपदा नहीं मार सकती।

दरअसल भूकम्प, बाढ़, हिमस्खलन, भूस्खलन या आकाशीय बिजली गिरने जैसी घटनाएं प्राकृतिक होती हैं और प्रकृति के नियमों के अनुसार ये होती ही रहती हैं। इन प्राकृतिक घटनाओं को हम अपनी लापरवाही और अज्ञान के कारण आपदा बनाते हैं। 30 सितंबर 1993 को महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में 6.2 परिमाण का भूकंप आता है तो उसमें लगभग 10 हजार लोग मारे जाते हैं और 30 हजार से अधिक लोगों के घायल होने के साथ ही 1.4 लाख लोग बेघर हो जाते हैं। जबकि 28 मार्च 1999 को चमोली में लातूर से भी बडे ा 6.8 मैग्नीट्यूट का भूकंप आता है तो उसमें केवल 103 लोगों की जानें जाती हैं और 50 हजार मकान क्षति ग्रस्त होते हैं। 20 अक्टूबर 1991 के उत्तरकाशी के 6.6 परिमाण के भूकंप में 786 लोग मारे जाते हैं और 42 हजार मकान क्षतिग्रस्त होते हैं। इसी तरह जब 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज में रिक्टर पैमान पर 7.7 परिमाण का भूकंप आता है तो उसमें कम से कम 20 हजार लोग मारे जाते हैं और 1.67 लाख लोग घायल होने के साथ ही 4 लाख लोग बेघर हो जाते हैं। जबकि 11 मार्च 2011 को जापान के टोहाकू क्षेत्र में रिक्टर पैमाने पर 9.00 अंक परिमाण का प्रलंकारी भूचाल आने के साथ ही विनाशकारी सुनामी भी आबादी क्षेत्र को ताबाह कर जाती है, फिर भी वहां केवल 15,891 लोग मारे जाते हैं। इस दुहरी विनाशलीला के साथ तीसरा संकट परमाणु संयंत्रों के क्षतिग्रस्त होने से विकीर्ण का भी था। अगर ऐसा तिहरा संकट भारत जैसे देश में आता तो करोड़ों लोग जान गंवा बैठते। 25 अप्रैल 2015 नेपाल में 7.8 परिमाण का भूकम्प आता है जिसमें लगभग 9 हजार लोग मारे जाते हैं और 21 हजार से अधिक घायल हो जाते हैं। वहां सबसे अधिक तबाही काठमांडू में हुयी है। क्योंकि देश की राजधानी होने के नाते वहां आबादी ज्यादा घनी और इमारतें भी औसतन ज्यादा और विशलकाय हैं।

अगर आप जापान में भूकंपों का इतिहास टटोलें तो वहां बड़े से बड़े भूचाल भी मानवीय हौसले को डिगा नहीं पाये। जापान में 26 नवम्बर सन् 684 ( जूलियन कैलेंडर ) से लेकर अब तक रिक्टर पैमाने पर 7 अंक से लेकर 9 परिमाण तक के दर्जनों भूचाल आ चुके हैं। आपदा प्रबंधकों के अनुसार इस परिमाण के भूकंप काफी विनाशकारी होते हैं। खास कर रिक्टर पैमाने पर 8 या उससे बड़े परिमाण के भूकंपों को भयंकर और 9 तथा उससे अधिक के भूचालों को तो प्रलयंकारी माना ही जाता है। फिर भी जपान में जनहानि बहुत कम होती है। सन् 1952 से लेकर अब तक जापान में रिक्टर पैमाने पर 7 से लेकर 9 परिमाण तक के 31 बड़े भूचाल आ चुके हैं। उनके अलावा 4 या उससे कम परिमाण के भूकंप तो वहां लोगों की दिनचर्या के अंग बन चुके हैं। इन भूकंपों में से टोहोकू के भूकंप और सुनामी के अलावा वहां कोई बड़ी मानवीय त्रासदी नहीं हुयी। वहां 25 दिसंबर 2003 को होक्कैडो में 8.3 परिमाण का भयंकर भूचाल आया फिर भी उसमें मरने वालों की संख्या केवल एक थी। इतने बड़े परिमाणों वाले 7 भूकंप ऐसे थे जिनमें एक भी जान नहीं गयी। जाहिर है कि जापान के लोग भूकंप ही नहीं बल्कि प्रकृति के कोपों के साथ जीना सीख गये हैं। वहां के लोगों ने प्रकृति को अपने हिसाब से ढालने का दुस्साहस करने के बजाय स्वयं को प्रकृति के अनुसार ढाल दिया है।

भूकंप की संवेदनशीलता के अनुसार भारत को 5 जानों में बांटा गया है। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील जोन ’पांच’ माना जाता है जिसमें सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र का सम्पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र है। वैसे देखा जाय तो अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक का संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारतीय उप महाद्वीप के उत्तर में यूरेशियन प्लेट के टकराने से भूगर्वीय हलचलों के कारण संवेदनशील है। इनके अलावा रन आफ कछ भी इसी जोन में शामिल है। लेकिन इतिहास बताता है कि भूचालों से जितना नुकासान कम संवेदनशील ’जोन चार’ में होता है, उतना जोन पांच में नहीं होता। क्योंकि जोन पांच वाले हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है। जबकि जोन चार और उससे कम संवेदनशील क्षेत्रों का जनसंख्या का घनत्व काफी अधिक है। त्रिपुरा को छोड़ कर ज्यादातर हिमालयी राज्यों का जनसंख्या घनत्व बहुत कम है। अरुणाचल प्रदेश का जनसंख्या घनत्व तो 17 और मीजोरम का 52 प्रति वर्ग किमी है। जबकि दिल्ली का जनसंख्या घनत्व 11,297 है और दिल्ली को भी भूकम्प के गंभीर खतरे की जद में माना जाता है। उत्तराखंड में ही उच्च हिमालयी क्षेत्र जिला चमोली का जनसंख्या घनत्व 49 और उत्तरकाशी का 41 है, वही मैदानी हरिद्वार का 817 और उधमसिंहनगर का 648 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। अगर कभी काठमांडो की जैसी भूकंप आपदा आती है तो भूकंपीय दृष्टि से अति संवेदनशील सीमांत जिलों से अधिक नुकसान मैदानी जिलों में हो सकता है।

यही नहीं हिमालयी क्षेत्र में प्रायः लोगों के घर हजारों सालों के अनुभवों के आधार पर परंपरागत स्थापत्य कला के अनुसार बने होते थे। इसलिये यहां जनहानि भी काफी कम होती थी। लेकिन अब पहाड़ के लोग मैदानी क्षेत्र की तरह ही मकान बना कर खतरा बढ़ा रहे हैं। देखा जाय तो हमने अभी लातूर तथा भुज की भूकंपीय आपदा से सबक नहीं सीखा। सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र के बीच के सभी राज्यों में अब परंपरागत मवन निर्माण शिल्प के बजाय मैदानी इलाकों की नकल से सीमेंट कंकरीट के मकान बन रहे हैं, जो कि भूकंपीय दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं। हिमालयी गावों में सीमेंट कंकरीट के जंगल उग गये हैं।

 

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