आजादी का 75 वां वर्ष और कम्युनिस्टों के संघर्ष व कुर्बानी की परम्परा ( Part-2)
– अनन्त आकाश
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की पहली इकाई का गठन आज से 102 साल पहले17अक्टूबर 1920 को ताशकंद में तत्कालीन सो
वियत संघ में हुई थी ।100में से 80साल बीसवीं तथा 22 साल 21वीं शताब्दी के हैं ।कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण एवं विकास भारत के आजादी के आन्दोलन से जुड़ा रहा ।स्वतंत्रता आन्दोलन की विभिन्न धाराओं में से बेहतरीन ,जुझारू कम्युनिस्ट विचारधारा का रूख सदैव से ही साम्राज्यवादी विरोधी रहा है ।जिसका असर अन्य पर भी पडा़ तथा इनको भी साम्राज्यवादी विरोधी विचारों को अपनाना पडा़ ।
कम्युनिस्टों को शुरू से भयंकर दमन का शिकार होना पड़ा । हजारों हजार को जेल की यातनाओं को सहना पडा़ तथा बडी़ संख्या में शहादतें दी । युद्धोत्तर के दौरान शहादतों की संख्या सर्वाधिक रही ।इसका अन्दाजा पार्टी की प्रथम अधिवेशन जो कि बर्ष 1943 बम्बई में आयोजित की गई थी ।जिसमें शामिल 133 प्रतिनिधियों की काटी सजा 413साल के बराबर थी । यानि हमारे एक – एक साथी दसियों साल जेल की सलाखों के पीछे रहे । क्योंकि अंग्रेजों तथा देश में साम्प्रदायिक तत्वों के नम्बर एक दुश्मन कम्युनिस्ट ही थे तथा कम्युनिस्टों के विरोध में दोनों का नापाक गठबंधन था ।कम्युनिस्ट पूर्ण स्वराज के पक्षधर थे , जिसमें मजदूरों ,किसानों आर्थिक तथा सामाजिक रूप से मुक्ति का लक्ष्य था ।राष्ट्रीय आन्दोलन में कम्युनिस्टों का मजदूरों ,किसानों को संगठित कर ऐतिहासिक योगदान रहा ।जिसने संघर्ष को संगठित तथा कुर्बानी का जज्बा पैदा किया ।
आजादी के बाद नये शासक वर्ग पूंजीपति ,सामन्ती गठजोड ने जनतांत्रिक क्रान्ति के कामों को पूरा करने के लक्ष्य से मुंह मोड़ दिया परिणामस्वरूप हमारे देश के मजदूर ,किसान तथा मेहनतकश अवाम का अहित हुआ । क्योंकि जो नीतियां अपनायी गई वह बडे़ इजारेदार घरानों तथा ग्रामीण धनिकों के हक में अपनायी गई है ।
कम्युनिस्टों ने भूमि सुधार के लिए सतत संघर्ष चलाऐ तथा कृषि सम्बन्धों का जनता के हित में करने का कार्य अपने हाथों में लिया । इस संघर्ष की प्रक्रिया में पहले केरल तथा बाद को पश्चिम बंगाल ,त्रिपुरा की वामपंथी सरकारों ने अपने अपने राज्यों में भूमि सुधार का ऐतिहासिक कार्यों को अन्जाम देकर आम जनता को बडी़ राहत दी ,कम्युनिस्टों का यह कार्य बर्षो तक भारतीय राजनीति के केन्द्र में रहा ।इसी कडी़ में कम्युनिस्ट पार्टी की आजादी से पहले तथा आजादी के बाद भाषावार राज्यों के पुनर्गठन में महत्वपूर्ण भूमिका रही ।जिसमें भारतीय संघ के अन्तर्गत भाषायी सिध्दान्त पर राज्यों का गठन हुआ ।
.कम्युनिस्ट हमारी राजनीतिक व्यवस्था के धर्मनिरपेक्षता तथा जनतंत्र के सबसे बड़े हिमायती बनकर आऐ । वह कांग्रेस सहित अन्य पूंजीवादी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों द्वारा राज्य में सभी धर्मों के बराबर हस्तक्षेप की वकालत के बजाय धर्म का राज्य तथा राजनीति में मामले में हस्तक्षेप न हो , इस सिध्दांत पर सदैव से अडिग रहे ।यह भूमिका उनके द्वारा शासित प्रदेशों में स्पष्ट देखी जा सकती है ।जब अयोध्या मुद्दे पर 1990 के दौर में भयंकर साम्प्रदायिक उभार आया था वामपंथी सरकार ने पश्चिम बंगाल में बिना समझौता किऐ इन ताकतों से शक्ति से निपटकर साम्प्रदायिक सौहार्द बनाऐ रखा । कम्युनिस्टों का प्रयास रहा कि वे जनतंत्र का व्यापक बिस्तार के साथ ही इसकी जडे़ं और अधिक गहरी हों । दूसरी तरफ सत्ताधारी पूंजीवादी पार्टियों का प्रयास रहा कि वह अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति जनतंत्र तथा संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने के लिऐ करें । कम्युनिस्टों ने हरेक उस कानून का विरोध किया जो जनतंत्र को कमजोर करता हो, या फिर आम जनता की आवाज दबाने का कार्य करता हो, सीपीएम के आपातकाल का पुरजोर के कारण उसके सैकड़ों नेताओं ने जेल की यातनाओं को सहना पडा़ ।
बर्ष 90 से हमारे देश के सत्ताधारी वर्ग ने नव उदारवादी नीतियों को लागू कर हमारे देश के पूंजीवादी विकास के मापदंडों को ही बदल डाला । आज काग्रेंस ,भाजपा सहित तमाम छोटी बडी़ पूंजीवादी पार्टियों ने नव उदारवादी नीतियों को आत्मसात कर दिया है । कम्युनिस्ट निरन्तरता से नव उदारवादी नीतियों के परिणामस्वरूप आऐ साम्राज्यवादपरस्त बदलाव का विरोध करते आऐ हैं । अपने वर्गीय तथा संगठनों में जनता के लिये काम करते हुये कम्युनिस्ट जनता के खिलाफ अपनायी जाने वाली नीतियों का विरोध करले आऐं हैं । इन नीतियों के खिलाफ तथा विभिन्न पहलुओं के खिलाफ मजदूर वर्ग ने इन तीन दशकों में कम से कम 19 से भी ज्यादा आम हड़तालों का सफलता पूर्वक नेतृत्व किया ।कम्युनिस्टों तथा वामपंथी आन्दोलन के प्रति सत्ताधारी वर्ग का निरन्तर हमला आम बात है ।1972 के दशक से बंगाल तथा इसके एक दशक बाद त्रिपुरा में अर्द्धफांसी आंतक बढते संघर्षों का ही कारण था ।इन दोनों राज्यों में आज इसकी पुनरावृत्ति देखने को मिल रही है ।केरल में भी सत्ताधारी वर्ग और आर एस एस के द्वारा सीपीएम के कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जा रही हैं ।कम्युनिस्टों ने जीवन के हरेक क्षेत्रों में सतत संघर्ष को आगे बढाने का कार्य किया है ।कम्युनिस्टों ने वर्गीय संघर्षों को ,सामाजिक उत्पीड़न के साथ जोड़ने का प्रयास किया है ।
नवउदारवाद और हिन्दुत्ववादी ताकतों तथा समानरूप विकास ने कम्युनिस्टों एवं धर्मनिरपेक्ष ,जनतांत्रिक ताकतों के सामने गम्भीर चुनौती खडी़ कर दी है । बर्ष 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने से स्थितियों में भारी परिवर्तन आया अब सत्ता ऐसी पार्टी चला रही है जिसकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा के साथ ही आर एस एस द्वारा नियन्त्रित है जिसके धर्मनिरपेक्षता ,जनतंत्र तथा मेहनतकश वर्ग के लिये सत्यनाशी नतीजे सामने आ रहे हैं ।देश में एक ऐसी विचारधारा के लोग सत्तासीन हैं जिनका आजादी के आन्दोलन से कोई लेना देना नहीं रहा ।इसीलिए वे निरन्तर जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता,साम्राराज्यवादी विरोधी परम्परा तथा संविधान एवं न्याय व्यवस्था पर एक के बाद एक हमला करने में लगे हुये हैं । हमारी एवं साझी शहादत ,साक्षी बिरासत इस सरकार के रहते सुरक्षित नहीं है ।
इसलिए आजादी के 75 बर्षगांठ के अवसर पर हम संकल्प लें, देश की सत्ता में काबिज जो अब हिन्दुस्तान की बिरासत पर अपना दावा ठोक रहे हैं तथा जनतंत्र ,धर्मनिरपेक्ष तथा कारफोरेट तथा फूटपरस्त नीतियों के लिए कार्य कर रहे हैं । इनके खिलाफ जनता को लामबंद करें तथा उन्हें बेनकाब करते हुऐ आजादी की साझी शहादत तथा साझी बिरासत की रक्षा करें । ( end of the article)
(लेखक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनका ज्यादा ध्यान अपनी पार्टी पर ज्यादा केंद्रित रहा हो। जबकि स्वाधीनता आंदोलन में केवल एक ही कम्युनिस्ट पार्टी थी और उसका लक्ष्य अन्य देशों की तरह क्रांति के जरिये जनवाद की स्थापना करना था। इसीलिए भगत सिंह समेत ज्यादातर क्रन्तिकारी वामपंथी थे और सोवियत क्रांति से प्रभावित थे। जाहिरा तौर पर ब्रिटिश शासन के भारत में दो राजनीतिक शत्रु थे। उनमे एक कांग्रेस और दूसरे कम्युनिस्ट। इसलिए अंग्रेजों का बड़ा निशाना बड़े शत्रु पर था। अंग्रेजी शासन के दमन के कारण कई कम्युनिस्ट नेता भूमिगत ही काम करते रहे। साम्प्रदायिकता के आधार पर जनता की एकता तोड़ने वाले तब भी थे और अब भी हैं. अंग्रेजों की नीति भी divide and rule की थी इसलिए वे समाज तोड़क हिंदुस्तानी अंग्रेजों के अजीज रहे। दुर्भाग्य से आज भी वोट बटोरने का आसान तरीका divide and rule बन गया है। नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर कम्युनिस्ट पार्टी टूटती रही और ये नेता बाद में अलग -अलग कम्युनिस्ट पार्टियों में शामिल होते रहे। महान राजनीतिक दार्शनिक, अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के नेता और मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक मानवेन्द्र नाथ रॉय ने ताशकंद में पहले ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी थी। रॉय ने शेष जीवन देहरादून में ही बिताया। टेहरी के प्रजा मंडल के गठन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। कहा जाता है की नेहरू जी के निर्देशानुसार कांग्रेस नेता ठाकुर कृष्ण सिंह और तत्कालीन कलेक्टर ने देहरादून के मोहिनी रोड पर रॉय के लिए घर की व्यवस्था की। नेहरू और रॉय राजनीतिक प्रतिद्वंदी थे फिर भी दोनों ही एक दूसरे की विलक्षण बुद्धि के कायल थे। इस श्रृंखला को अगर कोई विद्वान आगे बढ़ाना चाहे तो स्वागत है –संपादक )