झंडा ऊँचा रहे हमारा : तिरंगा 1921 में बना और कांग्रेस ने 1931 में अपनाया
-जयसिंह रावत
आजादी के आन्दोलन में स्वशासन, भारतीयता और भारतवासियों की एकजुटता का प्रतीक रहा तिरंगा आजादी के बाद भारत की सम्प्रभुता, शक्ति, साहस, शांति, सत्य, विकास और उर्वरकता का प्रतीक बना वही तिरंगा आज राजनीति का जरिया बन गया है। राजनीति के इस दलदल में विपक्ष जहां सत्ता पक्ष पर तिरंगे पर अपना भगवा रंग चढ़ाने का आरोप लगा रहा है तो सत्तापक्ष का पलटवार करने में कोई मुकाबला ही नहीं है। वह विपक्ष की देशभक्ति पर सवाल उठा रहा है। जबकि विपक्ष का अरोप है कि अगर आप इतने तिरंगा भक्त थे तो आरएसएस मुख्यालय में तिरंगा क्यों नहीं फहराया जाता रहा? तिरंगे के राजनीतिक कॉपीराइट के विवाद के आलोक में हमें इसके इतिहास में जाना जरूरी है। निश्चित रूप से राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्रभक्ति का प्रतीक अवश्य है लेकिन राष्ट्रभक्ति किसी की कॉपीराइट का मामला नहीं है।
तिरंगा कांग्रेस की ही देन है !
इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि तिरंगा वास्तव में कांग्रेस की ही देन है। आजादी के आन्दोलन में कांग्रेस के तिरंगे के बीच में गांधी जी का चरखा था। संविधान सभा द्वारा तिरंगे को अपनाये जाने के बाद तिरंगे के बीच की सफेद पट्टी पर अंकित चरखा हटा कर वहां अशोक चक्र जड़ दिया गया और चरखायुक्त तिरंगा स्वतः ही कांग्रेस के पास छूट गया। कांग्रेस के तिरंगे की बीच में भी अब चरखे की जगह हाथ लग गया। इस तरह देखा जाये तो 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाये जाने और 15 अगस्त 1947 को भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा फहराये जाने के बाद तिरंगा किसी पार्टी विशेष का नहीं बल्कि भारत की सम्प्रभुता, शक्ति, साहस, शांति, सत्य, विकास और उर्वरकता का प्रतीक है
पिंगली बेकैया थे तिरंगे के जन्मदाता
प्राचीनकाल के युद्धों में नरपतियों की सेनाएं अपनी पहचान के लिये अपने-अपने झण्डों का प्रयोग करती थीं। युद्ध के बाद विजयी सेना अपनी सम्प्रभुता, शक्ति और सिद्धान्त के प्रतीक के तौर पर अपने झण्डे को ससम्मान सुरक्षित रखती थीं।
हमारे देश में ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में जब देवताओं और राक्षसों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था, उस समय देवताओं ने अपने रथों पर जो चिन्ह लगाए थे, वे सभी उनके झंडे बन गए थे। माना जाता है कि तभी से ध्वज को मंदिर, वाहन आदि में लगाने की परंपरा शुरू हुई। हमारे देश में सभी शासक अपने-अपने ध्वजों और प्रतीकों का प्रयोग करते थे। आजादी का आन्दोलन भी एक युद्ध ही था इसलिये प्रतीक तथा प्रेरणा के लिये कांग्रेस को एक ध्वज की आवश्यकता पड़ी तो विधिवत एक अधिकृत झण्डे के निर्माण की प्रकृया शुरू हो पायी।
सबसे पहले 1906 में कलकत्ता के पारसी बागान में झण्डा फहराया
माना जाता है कि राष्ट्रीय आन्दोलन में सबसे पहले 1906 में कलकत्ता के पारसी बागान में झण्डा फहराया गया। उसके अगले साल 22 अगस्त को अन्तर्राष्ट्रीय सोशिलिस्ट कांग्रेस के स्टुट्टागर्ट सम्मेलन में झण्डा फहराया गया। लेकिन तिरंगे की असली यात्रा 1921 से शुरू हुयी जिसके डिजाइनर पिंगली बेकैया थे जो कि स्वयं ही एक सधीनता सेनानी और गांधी जी के कट्टर समर्थक थे। पिंगली वेंकय्या का जन्म 2 अगस्त, 1876 को हुआ था। मद्रास में अपनी हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह स्नातक की पढ़ाई करने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। उन्हें भूविज्ञान और कृषि का शौक था। वह न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक कट्टर गांधीवादी, शिक्षाविद, कृषक, भूविज्ञानी, भाषाविद् और लेखक थे।
सन् 1921 में तिरंगे का पहला डिजाइन आया
वास्तव में पिंगली वेंकय्या ने 1916 में ‘भारत के लिए राष्ट्रीय ध्वज’ नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की जिसमें उन्होंने ध्वज के चौबीस डिजाइन प्रस्तुत किए थे। 1921 में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान पिंगली वेंकय्या ने एक ध्वज डिजाइन गांधी जी के समक्ष पेश किया। वही डिजाइन अब भारत के वर्तमान राष्ट्रीय ध्वज का आधार बना। शुरू में इसमें देश के दो प्रमुख समुदायों- हिंदू और मुस्लिम का प्रतीक करने के लिए लाल और हरे रंग की पट्टियां शामिल थीं। महात्मा गांधी की सलाह पर, पिंगली वेंकय्या ने खादी बंटिंग पर चरखा डिजाइन के साथ हरे और लाल रंग के ऊपर एक सफेद बैंड जोड़ा। सफेद रंग शांति और भारत में रहने वाले बाकी समुदायों का प्रतिनिधित्व करता था, और चरखा देश की प्रगति का प्रतीक था। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में, ध्वज ने एकजुट होने और स्वतंत्रता की भावना को जन्म देने में मदद की। हालाँकि पहले तिरंगे को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया था, लेकिन बाद में इसे सभी कांग्रेस अवसरों पर फहराया जाने लगा।
कांग्रेस ने 1931 में तिरंगे को अपनाया
गांधीजी की स्वीकृति ने इस ध्वज को काफी लोकप्रिय बना दिया था और यह 1931 तक उपयोग में था। वर्ष 1931 ध्वज के इतिहास में एक यादगार मोड़ आया। हालाँकि रंगो को लेकर, ध्वज ने सांप्रदायिक चिंताएं बढ़ा दी थीं, जिसके बाद 1931 में गठित कांग्रेस की ध्वज समिति के सुझाव पर कांग्रेस कार्य समिति ने बदलाव के साथ एक नया तिरंगा लेकर आई थी जिसे पूर्ण स्वाराज कहा गया। उसी वर्ष कांग्रेस द्वारा तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। संशोधित झंडे को लाल रंग के स्थान पर केसरिया से बदल दिया गया था, सफेद पट्टी को बीच में स्थानांतरित कर दिया गया था, केंद्र में सफेद पट्टी में चरखा जोड़ दिया गया, जिसका अभिप्राय था कि रंग गुणों के लिए खड़े थे, न कि समुदायों के लिए, साहस और बलिदान के लिए केसरिया, सत्य और शांति के लिए सफेद, और विश्वास और ताकत के लिए हरा। गांधी जी का चरखा जनता के कल्याण का प्रतीक माना गया।
संविधान सभा ने 22 जुलाइ 1947 को अपनाया
समय के साथ हमारे राष्ट्रीय ध्वज में भी कई बदलाव हुए हैं। आज जो तिरंगा हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, उसका यह छठवां रूप है। इसे इसके वर्तमान स्वरूप में 22 जुलाई 1947 को भारतीय संविधान सभा की बैठक में अपनाया गया था। इसे 15 अगस्त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा फहराया गया। इसके पश्चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। अशोक चक्र की 24 तीलियां या स्पोक बताती हैं कि गति में जीवन है और गति में मृत्यु है। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्वज अंततः स्वतंत्र भारत का तिरंगा ध्वज बना और कांग्रेस के पास उसका मूल स्वरूप ही रह गया। अब कांग्रेस के झण्डे में चरखे की जगह चुनाव निशान हाथ है।
भारत के जीवन मूल्यों का प्रतीक है तिरंगा
हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा भारत के मूल्यों और विचारों का प्रतिनिधित्व भी करता है। भारत का राष्ट्रीय ध्वज देश के लिए सम्मान, देशभक्ति और स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह भाषा, संस्कृति, धर्म, वर्ग आदि में अंतर के बावजूद भारत के लोगों की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। यह ध्वज जो कि लगभग आधा दर्जन पड़ावों के बाद आज दुनियां के सामने भारत की आन बान और शान के रूप में लहरा रहा है, वह स्वाधीनता आन्दोलन में भारत की आजादी के आन्दोलन में उत्प्रेरक का काम करता था। इस ध्वज को लेकर हमारे आन्दोलनकारी भारत की आजादी के लिये मर मिटने को तैयार रहते थे।
सन् 2002 के बाद हटी बंदिशें
सन् 2002 तक राष्ट्र ध्वज के प्रोटोकॉल के तहत 26 जनवरी, 15 अगस्त और 2 अक्टूबर जैसे विशेष अवसरों के अलावा, निजी नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति नहीं थी। लेकिन यह मुद्दा उस समय चर्चा में आया जब उद्योगपति नवीन जिंदल ने फरवरी 1995 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर कर राष्ट्रीय ध्वज फहराने के संबंध में अधिकारियों द्वारा उन पर लगाई गई रोक को चुनौती दी। 15 जनवरी, 2002 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने डॉ. पी.डी. शेनॉय समिति ने इस मामले को देखने के लिए गठित किया था, और घोषणा की कि नागरिक 26 जनवरी 2002 से वर्ष के सभी दिनों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए स्वतंत्र होंगे।
तीन बार फहरा चुका है आरएसएस तिरंगा
आरएसएस द्वारा राष्ट्रीय ध्वज न फहराये जाने पर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन संघ मुख्यालय नागपुर में 15 अगस्त 1947, 26 जनवरी 1950 और फिर सन् 2002 में तिरंगा फहराये जाने के उदाहरण हैं। एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ के 17 जुलाइ 1947 के अंक में छपे लेख का हवाला देते हुये कहते हैं कि उस समय संघ को तिरंगे के तीन रंग नापसंद थे और संघ घ्वज का केवल एक भगवा रंग चाहता था।