विनम्र और शालीन विद्रोही कवि मीराबाई
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा
मीरा के इस पद में उसकी पूरी आत्मकथा समाई हुई है।अपनी व्यथा -कथा को उसने कृष्ण भक्ति के माध्यम से प्रकट किया। राजस्थान के रूढ़िवादी समाज ने पहले तो पति की मृत्यु पर मीरा को सति बनाकर जीवित ही जलाने की कोशिश की थी और जब इसमें वे असफल हुए तो फिर मीरा के देवर ने उन्हें विष का प्याला भेजा , किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल हुई मीरा के पास अब पूरी तरह कृष्ण भक्ति में लीन हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। युवा मीरा की यह पीड़ा उसकी सभी रचनाओं में देखी जा सकती है ।
कहते हैं मीरा ने एक बार पत्र लिखकर तुलसीदास जी से मिलने की इच्छा जाहिर की थी , वही तुलसीदास जो एक बार अपनी विदुषी स्त्री से प्रताड़ित हो चुके थे तो उनके दिमाग में उसी घटना की यादें ताजा थी, तो इसलिए तुलसी ने उत्तर में मीरा को लिख भेजा कि- मैं स्त्रियों से नहीं मिलता। मीरा ने प्रत्युत्तर में लिखा कि- मैं पुरुष सिर्फ कृष्ण को ही मानती हूं जो मेरे आराध्य हैं , बाकी मेरे लिए सारे पुरुष स्त्री ही हैं । मैं उन सबको अपनी तरह स्त्री मानती हूं । तुलसी बहुत लज्जित हुए तो अंततः मीराबाई से उनको मुलाकात करनी ही पड़ी।
आश्चर्य तो यह है कि तत्कालीन और उतरकालीन विद्वत समाज ने सूर , केशव और तुलसी की तरह उन्हें भक्ति काल के अग्रणी कवि के रुप में मान्यता नहीं दी क्योंकि वह स्त्री थी -मीरा ने अपने बूते पर अपने को स्थापित किया। फिर उनकी श्रद्धा भक्ति से पसीजकर लोकमानस ने भी उन्हें अपने हृदय में बसा दिया। चलिए खैर, लिखने को बहुत कुछ है । आप मीराबाई के द्वारा रचित इस पद को पढ़िए और अंदाज लगाइए कि जो कुछ मैने उनके बारे लिखा है क्या वह सही है ? –
” हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होय।
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय।
दरद की मारी बन-बन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी, जद बैद सांवरिया होय।”