ब्लॉगशिक्षा/साहित्य

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 : चयन के लिए केंद्रीयकृत व्यवस्था की आवश्यकता

–डॉ. सुशील उपाध्याय

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का बिंदु संख्या 9.2 उच्च शिक्षा प्रणाली की समस्याओं की तरफ इशारा करता है। इसमें उच्च शिक्षा संस्थानों में गवर्नेंस और नेतृत्व क्षमता के अभाव को एक समस्या के रूप में चिन्हित किया गया है। इस नीति में गवर्नेंस और नेतृत्व की क्षमता विकसित करने के लिए कुछ व्यवस्थाओं का भी उल्लेख किया गया है। जब सक्षम नेतृत्व का सवाल आता है तो यह बात स्वाभाविक रूप से उठती है कि जिन लोगों को भविष्य में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लीडरशिप प्रदान करनी है, उनके सेलेक्शन की प्रक्रिया क्या हो?
भारत में अखिल भारतीय एवं केंद्रीय स्तर की कई चयन प्रक्रिया हैं, जो संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से संपन्न होती हैं। क्या ऐसी ही कोई व्यवस्था उच्च शिक्षण संस्थाओं के लिए भी की जा सकती है, जिसमें उच्च स्तरीय पदों का चयन केंद्रीय स्तर पर पारदर्शी व्यवस्था के जरिए किया जा सके ? कुछ लोग यहां पर उच्च शिक्षण संस्थाओं की स्वायत्तता का प्रश्न उठाएंगे, लेकिन व्यावहारिक रूप से देखें तो अखिल भारतीय स्तर पर केंद्रीयकृत व्यवस्था से चयन किए जाने पर उच्च शिक्षण संस्थाओं की स्वायत्तता पर सीधे तौर पर कोई नकारात्मक प्रभाव पढ़ने की स्थिति नहीं दिखती है।

नई नीति में इस बात पर विशेष रूप से जोर दिया गया है कि वर्ष 2030 तक भारत के सभी विश्वविद्यालय, उच्च शिक्षण संस्थान और समकक्ष संस्थाएं मल्टीडिसीप्लिनरी इंस्टिट्यूट में परिवर्तित किए जाएंगे। इसके अलावा वर्ष 2035 तक उच्च शिक्षा में मौजूदा नामांकन (GER) को लगभग दोगुना करते हुए 50 फीसद के स्तर तक किया जाना है। इस दृष्टि से न केवल शिक्षकों, बल्कि उच्च शिक्षण संस्थाओं को लीड करने वाले लोगों की जरूरत में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी होगी। ऐसे में चयन प्रक्रिया में बदलाव न किया गया तो गुणवत्ता का मुद्दा पुराने ढर्रे में ही फँसा रहेगा।

इस समय कुलपति, निदेशक, प्राचार्य और प्रोफेसर आदि पदों की चयन एवं नियुक्ति प्रक्रिया बहुत बिखरी हुई है। इसे व्यवस्थित रूप में लाने के लिए यह जरूरी है कि उच्च शिक्षा की प्रस्तावित नियामक संस्था, जो कि यूजीसी का स्थान लेगी, के माध्यम से सुविचारित चयन प्रक्रिया निर्धारित की जाए। वर्तमान में भारत में सभी श्रेणियों के लगभग 1100 विश्वविद्यालय हैं, जिनमें 3 अथवा 5 साल के कार्यकाल के लिए कुलपति का चयन किया जाता है। कार्यकाल पूरा करके सेवानिवृत्त होने के वार्षिक औसत के आधार पर देखें तो प्रतिवर्ष लगभग 300 नए कुलपतियों की आवश्यकता है। इसी प्रकार 48 हजार कॉलेजों के प्राचार्य अथवा निदेशक पद के लिए प्रतिवर्ष लगभग 10 हजार नए लोगों की जरूरत होगी। गौरतलब है कि यूजीसी द्वारा प्राचार्य पद का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया है। इस कारण प्रतिवर्ष 10 हजार प्राचार्य अथवा निदेशक के पद रिक्त होंगे।

अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे की गत वर्ष (2019-20) की रिपोर्ट के अनुसार देश में करीब 15 लाख शिक्षक उच्च शिक्षण संस्थाओं में कार्य कर रहे हैं। इनमें फुल प्रोफेसरों की संख्या 2 लाख के लगभग है। यदि प्रोफेसर के रूप में औसत कार्यकाल 20 वर्ष मान लिया जाए तो प्रतिवर्ष 10 हजार नए प्रोफेसरों की जरूरत होगी। चूंकि इन सभी पदों के लिए विशेष योग्यता निर्धारित है तो ऐसा बिल्कुल नहीं होगा कि इनके लिए लाखों आवेदन आ जाएं और चयन करना सम्भव न हो पाए। इन सभी पदों पर सीधे साक्षात्कार के जरिये चयन होना है इसलिए किसी भी एजेंसी के लिए इस कार्य को संभालना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा।
यह सही है कि उच्च शिक्षा के इतने बड़े ढांचे में सभी पदों पर किसी एक केंद्रीय एजेंसी द्वारा सीधे नियुक्ति किया जाना न आसान होगा और न ही व्यावहारिक होगा। इसलिए फिलहाल सहायक प्रोफेसर और सह-प्रोफेसर के पदों को छोड़कर केवल प्रोफेसर, प्राचार्य, निदेशक और कुलपति पदों पर ही केंद्रीयकृत नियुक्ति प्रक्रिया लागू की जा सकती है। इनमें भी प्रांतीय स्तर के आरक्षण आदि की दृष्टि से आधे पदों की भर्ती की अनुमति राज्य सरकार को दी जानी चाहिए। ऐसा किया जाना शिक्षा के समवर्ती विषय होने के दृष्टिगत भी उचित होगा। चयन की ऐसी व्यवस्था अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में भी लागू है, जहां केंद्रीय स्तर पर सीधे चयन के अलावा राज्य स्तरीय लोक सेवा आयोग के माध्यम से भी चयन किए जाते हैं और दोनों प्रकार के चयनित लोग एक-दूसरे के पूरक के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं।

केंद्रीयकृत चयन प्रक्रिया से उच्च शिक्षा का अखिल भारतीय स्वरूप भी सामने आ सकेगा। साथ ही, नए और योग्य लोगों को उच्च शिक्षण संस्थान में अपनी नेतृत्व क्षमता के प्रदर्शन का अवसर भी मिल सकेगा। नई शिक्षा नीति के बिंदु संख्या 13 में कहा गया है कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में संकाय सदस्यों का प्रदर्शन औसत से बहुत कम है। इसी बिंदु में सर्वोत्कृष्ट, प्रेरित और सक्षम लोगों की नियुक्ति के लिए कई प्रकार की अनुशंसा भी की गई हैं, लेकिन इन अनुशंसाओं में केंद्रीयकृत नियुक्ति की बजाय विश्वविद्यालय/संस्थान स्तर सीधी नियुक्ति की बात कही गई और नियोक्ता से यह उम्मीद की गई है कि वह संकाय सदस्यों की जवाबदेही तय करेगा।

यह भी उल्लेखनीय है कि सेवा में आने से लेकर सेवानिवृत्त होने तक एक ही संस्था में कार्य करने के कारण बहुत सारे लोग ठहराव और जड़ता के शिकार हो जाते हैं। इसलिए शिक्षण संस्थाओं के लिए न केवल केंद्रीयकृत चयन प्रक्रिया, बल्कि समान प्रकृति की उच्च शिक्षण संस्थाओं में समान पदों पर स्थानांतरण की व्यवस्था भी लागू की जानी चाहिए। इस व्यवस्था से वरिष्ठ संकाय सदस्यों को अपने ज्ञान, अनुभव एवं शोध को नए लोगों तक पहुंचाने का अवसर मिलेगा और एक ही स्थान पर कार्य करते रहने की जड़ता एवं एकरसता से भी मुक्ति मिल सकेगी। (अखिल भारतीय स्तर की अन्य कई सेवाओं में इस प्रकार की व्यवस्था पहले से ही लागू है।)

हालांकि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और समकक्ष संस्थानों के लिए कुलपति, निदेशक, प्राचार्य और प्रोफेसर पदों पर नियुक्ति की केंद्रीयकृत प्रक्रिया को लागू करने के लिए विभिन्न स्तरों पर अधिनियमों, परिनियमों और संस्थानिक व्यवस्थाओं में कई प्रकार के बदलाव लाने होंगे। यदि सरकार उपरोक्त व्यवस्था पर विचार करे तो इसे शुरुआती तौर पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए लागू किया जा सकता है। इसी क्रम में राज्य विश्वविद्यालयों और राज्य सरकारों द्वारा संचालित कॉलेजों में भी लागू करने पर विचार हो सकता है। निजी संस्थाओं में भी सर्वोच्च पदों पर इसी प्रक्रिया के माध्यम से लोगों को भेजा जाना चाहिए। इससे निजी संस्थाओं में अकादमिक और शैक्षिक प्रबंधन का स्तर सुधर सकेगा। इस व्यवस्था के शुरुआती स्तर पर सफल होने पर बाद में इसे सहायक प्रोफेसर, सह-प्रोफेसर और इन संस्थानों के गैर-शैक्षणिक अधिकारियों के चयन पर भी लागू किया जा सकता है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!