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बैकडोर भर्ती निरस्त तो हुई, लेकिन पूर्ण न्याय अभी बाकी

–दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड विधानसभा में बैकडोर भर्ती घोटाले में नियम विरुद्ध नौकरी पाने वाले लोगों की विदाई जारी है। सोमवार 16 सितम्बर को  40 कार्मिकों को टर्मिनेट किया गया तो मंगलवार को एक सौ कार्मिक विदा कर दिए गए। अगले एक – दो दिन में बाकी कार्मिकों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। बैकडोर से नौकरी पाने वालों में स्वाभाविक रूप से आक्रोश है और वे इसे दर्ज भी कर रहे हैं किंतु फिलवक्त उनकी बहाली की संभावना दिख नहीं रही है।
अदालत बहुत ज्यादा उनकी दलीलों से सहमत हो और स्थगनादेश दे तो अलग बात है लेकिन बहुत बड़ा सवाल अभी भी अनुत्तरित है। वह सवाल यह है कि एक अदद अर्जी पर मर्जी की नौकरी हासिल करने वाले तो विदा हो गए किंतु नौकरियों की रेवड़ियां बांटने वालों को सजा कब होगी। विशेषाधिकार और विवेक के नाम पर मनमानी की छूट न तो कानून देता है और न संविधान, जिसकी शपथ लेकर माननीय लोग ऊंचे पदों को सुशोभित करते हैं। उत्तराखंड की जनता को इस बात का फैसला करना है कि क्या वह विशेषाधिकार के नाम पर रेवड़ियां बांटने की छूट देने के लिए तैयार है? या वह ऐसे लोगों को उनकी जगह बताने को तैयार है? रेवड़ी बांटने वाले एक महानुभाव बहुत बचकानी सी दलील देते हैं कि उन्हें चुनाव में पराजय के साथ जनता ने सजा दे दी है। यह मन बहलाने के लिए तो ठीक है किंतु न्याय की कसौटी पर स्वीकार करने योग्य नहीं है। भारतीय लोकतंत्र में चुनाव कैसे जीते और हारे जाते हैं, यह कोई पैमाना नहीं है। अगर योग्यता के पैमाने पर जीत हार तय होती तो स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव में पेशावर कांड के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली की पराजय नहीं होती। वहीं चंद्र सिंह गढ़वाली जिन्हें काला पानी से रिहाई के बाद सम्पूर्ण गढ़वाल की जनता ने तब सिर आंख पर बिठाया था। लिहाजा चुनाव में हार को पर्याप्त सजा मान लेने की बात गले नहीं उतरती। लाख टके की बात यह है कि प्रदेश के योग्य युवाओं का हक मार कर अपनों और अपनी जमात के खास चुनिंदा लोगों को रवडियां बांट कर क्या आपने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया था? जवाब है – नहीं। फिर जब आम आदमी को मामूली जुर्म पर सलाखों के पीछे भेज दिया जाता है तो क्यों न आपकी भी वही जगह हो? संवैधानिक पद की ढाल से तो बचाव की मांग तो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के भी विरुद्ध है। फिर आपका अपराध तो नितांत निंदनीय की श्रेणी का है, उससे कैसे माफी दी जा सकती है? यह दलील भी स्वीकार करने योग्य नहीं है कि पहले भी रेवड़ियां बंटती रही हैं, इसलिए उन्होंने भी बांट ली तो क्या गलत है? मान्यवर आपने भी अपराध कम नहीं किया है, बल्कि आपका अपराध इसलिए भी ज्यादा गंभीर हो जाता है, क्योंकि जिस जमात में शुचिता, पारदर्शिता और इस तरह की लफ्फाजी से लोगों को लगातार बहलाया जाता रहा है, उससे न्यायप्रियता की भी अपेक्षा की जाती है। अगर कोई बेशर्मी से कह डाले कि मेरे बेटे बहू बेरोजगार थे, इसलिए उन्हें नौकरी दे दी गई, तो एकबारगी कहा जा सकता है कि वे न तो चुनाव से पहले और न चुनाव के बाद इस तरह की लफ्फाजी करते हैं बल्कि वे अपनी मर्जी के लिए माने भी जाते रहे हैं, किंतु जो लोग खुद को दूध का धुला बताते हों तो उनके इस तरह के कर्म को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए, इसका फैसला हम पाठकों पर छोड़ना ही उचित समझते हैं।
आपको याद होगा! विधानसभा में बैकडोर भर्तियों का मामला अगस्त में सामने आया था। तब स्पीकर ऋतु भूषण खंडूड़ी विदेश में थी। वे विदेश से लौटी तो तीन सितंबर को उन्होंने कोटिया कमेटी बना कर मामले की जांच के आदेश दिए। इस कमेटी को जांच के लिए एक माह का समय दिया गया था लेकिन कमेटी ने समय से पूर्व 23 सितम्बर को ही छानबीन कर अपनी रिपोर्ट से दी और अगले दिन स्पीकर ने अपना फैसला सुना कर 228 बैकडोर भर्तियों को निरस्त कर दिया। यहां उल्लेख करना उचित होगा कि उत्तराखंड विधानसभा में राज्य स्थापना काल से ही बैकडोर भर्तियों की परंपरा से स्थापित हो गई थी। आपको याद दिला दें, उत्तर प्रदेश में जहां 403 विधायक हैं, उस विधानसभा में कार्मिकों की संख्या 500 है जबकि 70 विधायकों वाली उत्तराखंड विधानसभा में यह संख्या 550 के करीब थी। तो क्या उत्तराखंड संसाधनों के मामले में ज्यादा आगे है?
यह भी याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि अंतरिम विधानसभा में जब स्व प्रकाश पंत अध्यक्ष थे, तब 98 बैकडोर भर्तियां हुई थी, उसके बाद 2002 में कांग्रेस की सरकार बनी। स्पीकर थे – यशपाल आर्य, जो इस समय नेता प्रतिपक्ष है, उन्होंने भी अपने विवेक का खूब इस्तेमाल किया और विशेषाधिकार के जरिए 105 लोगों को बैकडोर नियुक्तियां कर डाली। फिर 2007 में भाजपा की सरकार में स्पीकर बने हरबंस कपूर। वे क्यों पीछे रहते? हालांकि उनका आंकड़ा कम रहा किंतु पिछले दरवाजे से उन्होंने भी 55 लोगों को बैकडोर नियुक्तियां दे डाली। 2012 में फिर सत्ता परिवर्तन हुआ तो बैकडोर भर्तियों का नया रिकॉर्ड बना। स्पीकर कौन थे, आप जानते ही हैं। कुंजवाल साहब के कार्यकाल में 172 लोगों को बैकडोर नियुक्तियां मिली। वे बड़ी मासूमियत से साथ आपने कहते सुने होंगे कि “मैने तो विपक्ष के नेताओं की सिफारिश पर भी नौकरियां दी”। अब बारी आई 2017 में प्रेमचंद अग्रवाल की। उन्होंने 72 लोगों को रेवड़ियां बांट डाली और स्वाभाविक रूप से लाभ पाने वाले सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोग ही होंगे और न ही उन्होंने दावा किया कि मैने सबको नौकरियां दी, जैसे कुंजवाल साहब का दावा था।
अब सवाल यह है कि उत्तराखंड के युवाओं के आंदोलन तथा कोटिया समिति के बहाने चयन के लिए एक लाइन तो खिंच गई है, शायद भविष्य में युवाओं के साथ धोखा नहीं होगा किंतु बड़ा सवाल अभी भी बना हुआ है कि बैकडोर का पाप कर्म करने वालों को क्या सजा मिलेगी और जब तक यह बात तय नहीं हो जाती तब तक न्याय की पूर्णता भी नहीं होगी।
गौरतलब है कि कोटिया समिति की अनुशंसा के मुताबिक बैकडोर भर्ती निरस्त करने का निर्णय पितृ पक्ष में हुआ और अब शारदीय नवरात्र में फैसले के क्रियान्वयन पर मुंबई में रह रहे उत्तराखंडी प्रवासी कामेश बहुगुणा ने व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी की है। चलते चलते इस अनिर्णीत मामले में हम आपको श्री बहुगुणा की टिप्पणी के साथ छोड़ते हैं –
*नौरता आंण से पैली हि दुर्गा न पाप्यूं तै अपडू पर्चो दियाली,
देवतोंकि भूमि कि पावन माटी म अत्यचारयूं को शराद कर्याली।
*घूस कमीशन का बावन बिंजन खयाँ अब निकळला कपाळै बट्टा भैर,
भ्रष्टाचारयूं कि जड़ उगटांण कु भैरोंन भि देखा खाड खैंण्याली,
अब होलु निसाब, द्या ब्यटों हिसाब।*

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