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आग और पानी का ये कैसा रिश्ता ? जंगलों की आग ने बढ़ा दिया बादल फटने का खतरा

Cloud condensation nuclei (CCN), which can activate and grow into fog or cloud droplets in the presence of supersaturation (SS) was measured by a droplet measurement technology’s (DMT) CCN Counter in the pristine Himalayan region at Himalayan Clouds Observatory (HCO), Swami Ram Tirtha (SRT) Campus of Hemvati Nandan Bahuguna (HNB) Garhwal University, Badshahithaul, Tehri Garhwal, Uttarakhand, India.This observation was carried out under a Climate Change Programme Division, Department of Science & Technology (DST) funded project in collaboration with Hemvati Nandan Bahuguna (HNB) Garhwal University and IIT Kanpur, where the variation of CCN was reported on diurnal, seasonal, and monthly scale.

जयसिंह रावत

इस साल का मानसून लगभग सारे भारत में छा गया है। इसके साथ ही बाढ़, भूस्खलन, बिजली गिरने एवं बादल फटने जैसी मानसून संबंधी आपदाओं का खतरा भी विभिन्न संवेदनशील क्षेत्रों में मंडराने लगा है। चूंकि मौसम विभाग ने इस साल समान्य से अधिक गर्मी का पूर्वानुमान लगाया था जिसका कटु अनुभव हो ही गया और अब सामान्य से अधिक वर्षा की भविष्यवाणी को हमने 28 जून को दिल्ली में हुयी रिकार्ड अतिवृष्टि से सच होती हुयी भी देख लिया है। लेकिन इससे भी अधिक डरावनी आशंका बादल फटने की घटनाओं की है जो कि हर साल खास कर हिमालयी राज्यों और पश्चिमी घाट जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में कहर बरपाती है। विशेषज्ञ बादल फटने की घटनाओं को वनाग्नि से जोड़ कर देख रहे हैं। चूकि इस साल देश में और खास कर हिमालयी राज्यों में वनाग्नि की घटनाएं कुछ ज्यादा ही हुयी हैं इसलिये बादल फटने का खतरा भी उतना ही बढ़ा है। इसलिये आपदा प्रबंध तंत्रों को चौबीसों घण्टे सजग रहने की जरूरत है।

शोध का निष्कर्स: वनाग्नि और बादल फटने का करीबी संबंध

वैज्ञानिक पत्रिका ’’एटमॉस्फीयरिक एनवायरमेंट’’ में फरबरी 2021 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार जंगल की आग और बादलों के फटने की घटनाओं का करीबी संबंध है। हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल (एचएनबी) विश्वविद्यालय और भारतीय प्रौद्योगिकी कानपुर द्वारा संयुक्त रूप से किए गए इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने क्लाउड कंडेनसेशन न्यूक्लियर की सक्रियता को मापा है। साथ ही उन्होंने पहली बार मध्य हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र के रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में मौसम की विभिन्न स्थितियों के प्रभाव में अधिक ऊंचाई वाले बादलों के निर्माण और स्थानीय मौसम की घटनाओं की जटिलता पर इसके प्रभाव का अध्ययन किया है। इन वैज्ञानिकों के अध्ययन से पता चला है कि बादल की छोटी बूंदों के आकार के बराबर कण, जिस पर जलवाष्प संघनित होकर बादलों का निर्माण करती है, उनमें और जंगल की आग की घटनाओं के बीच गहरा सम्बन्ध है। इन छोटे कणों को क्लाउड कंडेनसेशन न्यूक्लियर (सीसीएन) के नाम से जाना जाता है। शोध से पता चला है कि जंगल में लगने वाली आग की घटनाओं के समय ऐसे कणों की मात्रा चरम पर थी। वैज्ञानिकों ने एचएनबी विश्वविद्यालय के स्वामी राम तीर्थ (एसआरटी) परिसर में स्थित हिमालयन क्लाउड ऑब्जर्वेटरी (एचसीओ) में छोटी बूंदों को मापने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (डीएमटी) सीसीएन काउंटर की मदद से इन क्लाउड कंडेनसेशन न्यूक्लियर को मापा गया था, जोकि अतिसंतृप्ति (एसएस) की मौजूदगी में कोहरे या बादल की बूंदों के रूप में सक्रिय और विकसित हो सकते हैं।

जंगल की आग और आसमानी पानी का खतरनाक संयोग

वैज्ञानिकों का यह अध्ययन उत्तराखण्ड जैसे हिमालयी राज्यों के लिये सचमुच चिन्ता पैदा करने वाला है, क्योंकि वानाग्नि और बादल फटने की

सर्वाधिक घटनाएं इन्हीं राज्यों में होती हैं और ये घटनाएं निरन्तर बढ़ती जा रही है। नासा (नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) के एक्वा और टेरा उपग्रहों पर लगे मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर सेंसर द्वारा एकत्र किए गए डेटा के अनुसार, इस मौसम (नवंबर से जून) में जंगल की आग से उत्तराखंड सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। सेंसर ने 10 जून, 2024 तक राज्य में 2,154 वनाग्नि की घटनाओं को कैप्चर किया। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के आंकड़ों के अनुसार इस साल वनाग्नि की सबसे अधिक घटनाएं मिजोरम (3,738), मणिपुर (1,702), असम (1,652), मेघालय (1,252) और महाराष्ट्र (1,215) में हुई हैं।

 

बादल फटने की परिभाषा

विश्व मौसम संगठन (डब्ल्युएमओ) के अनुसार बादल एक हाइड्रोमेटोर है जिसमें तरल पानी या बर्फ या दोनों के सूक्ष्म कण होते हैं, जो वायुमंडल में तैरते हैं और आमतौर पर जमीन को नहीं छूते हैं। वैज्ञानिक जर्नल ‘‘क्लाइमेट रिसर्च लैब’’ में प्रकाशित रॉक्सी मैथ्यू कोल के शोध के अनुसार एक मामूली आकार के बादल (1 घन किलोमीटर) में 500,000 लीटर से ज्यादा पानी हो सकता है। बादल फटना सामान्य बारिस से अलग होता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग एक सीमित क्षेत्र में 100 मिमी प्रति घंटे से अधिक वर्षा को बादल फटना कहता है। मौसम विज्ञानियों के अनुसार बादल फटने की घटनाएँ अक्सर क्यूम्यलोनिम्बस बादलों से जुड़ी होती हैं जो गरज के साथ बारिश करते हैं और कभी-कभी मानसूनी हवा के झोंकों और अन्य मौसमी घटनाओं के कारण भी होते हैं। क्यूम्यलोनिम्बस बादल पूरे क्षोभमंडल में 12 से 21किलोमीटर की ऊँचाई तक बढ़ सकते हैं और भारी मात्रा में पानी को रोक कर नीचे गिरा सकते हैं। भारत में बादल फटने की घटनाएँ अक्सर मानसून के मौसम में होती हैं, जब दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाएँ बहुत अधिक मात्रा में नमी लाती हैं। इसलिए, बादल फटना ज्यादातर हिमालय, पश्चिमी घाट और भारत के पूर्वोत्तर पहाड़ी राज्यों के ऊबड़-खाबड़ इलाकों में होता है। नाजुक खड़ी ढलानों पर भारी बारिश के कारण भूस्खलन, मलबा बहने से अचानक बाढ़ आती है, जिससे बड़े पैमाने पर विनाश होता है। जंगल की आग और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों के कारण हिमालय क्षेत्र में इन घटनाओं की आवृति बढ़ती जा रही है और इससे जुड़ी आपदाएँ हर साल हजारों लोगों को प्रभावित करती हैं और जान-माल, आजीविका, बुनियादी ढाँचे और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती हैं। असामान्य वर्षा से गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी हिमालयी नदियों में बाढ़ आ जाती है जिससे मैदानी भारत का एक बहुत बड़ा भाग भी प्रभावित होता है।

सावधानी ही सबसे बड़ा बचाव

बादल फटने की आपदाओं में सावधानी को सबसे बड़ा बचाव का उपाय माना जा सकता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का मानना है कि बादल फटने की आशंका वाले उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में अच्छी तरह से डिजाइन की गयी जल निकासी प्रणालियों, रिटेनिंग दीवारों और तटबंधों के निर्माण करने के साथ ही इन संरचनाओं को अतिरिक्त पानी को प्रभावी ढंग से चौनलाइज करने और अचानक बाढ़ को रोकने के लिए डिजाइन किया जाना चाहिए जिससे मानव बस्तियों और सड़कों, पुलों और इमारतों जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे की सुरक्षा हो सके। बादल फटने के प्रभाव को कम करने के लिए भूमि-उपयोग नियोजन रणनीतियों का कार्यान्वयन भी जरूरी है। विशेषज्ञ बादल फटने की आशंका वाले संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर मानचित्रण करने और इन क्षेत्रों में निर्माण को प्रतिबंधित करने की आवश्यकता पर बल देते हैं। जोनिंग विनियमों और बिल्डिंग कोड का सख्ती से पालन करने से मानव बस्तियों के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है। वनों का संरक्षण बादल फटने के प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

मौसम वेधशालाओं की कमी

हिमालय के कई क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाओं की ओर अक्सर मौसम संबंधी वेधशालाओं की अनुपस्थिति के कारण किसी का ध्यान नहीं जाता है। कई बार यंे घटनाएं भारी विनाश के बाद ही सामने आ पाती हैं। अधिक नुकसान नजर न आने पर इन्हें केवल नदियों के साथ होने वाला जलप्लावन मान लिया जाता है। इन घटनाओं के दौरान ढलान में दरारें और किनारे का कटाव आम है, जिसके परिणामस्वरूप तलछट जमा हो जाती है और कभी-कभी नदी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, जिससे वे बड़ी झील में बदल जाती हैं और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है।

बादल फटने से हजारों मर चुके उत्तराखण्ड में

उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनायें आम हो गयी हैं। सन् 1977 में इस तरह के हादसे में तवाघाट में 25 सैनिकों सहित  44 लोग मारे गये थे। उसके बाद 1996 में बेरीनाग में 18 लोग मारे गये। सन् 1998 के अगस्त में ही मालपा में 60 प्रोतिमा बेदी आदि मानसरोवर यात्रियों सहित 219 और उखीमठ क्षेत्र में 101 लोग मारे गये थे। धरचुला के खेत गांव में 12 जुलाइ 2002 को हुये भूस्खलन में 5 लोग मारे गये थे। हड़की में सन् 2000 में 19, घनसाली और बूढ़ाकेदार में 10 अगस्त सन् 2002 में 28 लोग और 99 पशु, बरहम में 2007 में 18 तथा हेमकुण्ड में 2008 में 11 लोग मारे गये थे।बूढ़ाकेदार मेंकी त्रासदी में ग्रामीणों के 22 घराट बहने से लोग लम्बे समय तक रोटी के लिये तरस गये। 14 सितम्बर 2012 की मध्य रात्रि तहसील-ऊखीमठ के विभिन्न ग्रामों ग्राम किमाणा, जुआतोक, चुन्नी, मंगोली, संसारी, ब्राहमणखोेेला तोक, प्रेमनगर तोक में एव ं16 सितम्बर 2012 को तहसील-जखोली में डूंगर-सेमला, किरोडामल्ला, तिवाडा तिमली में बादल फटने की घटना से 51 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी थी एवं शेष 14 व्यक्ति घायल हो गये थे। केदारनाथ की भयंकर त्रासदी की शायद ही कभी किसी ने कल्पना भी की होगी। उस समय चोराबाड़ी झील के ऊपर बादल फटने से केदारनाथ में जल प्रलय हुयी थी जिसमें सरकारी रिकार्ड के अनुसार लगभग 5 हजार और गैर सरकारी अनुमान के अनुसार 10 हजार से अधिक लोग मारे गये थे। इससे पहले 1979 में कोन्था गांव में 50 लोग मारे गये थे। सन् 1868 में बिरही नदी के अवरुद्ध होने के बाद इस झील के टूटने से 73 लोग मारे गये थे उसके बाद इसी तरह गौणाताल का निर्माण हुआ और जब वह टूटा तो फिर अलकनन्दा में बाड़ आ गयी। बिरही झील बनने के बाद बादल फटने से त्वरित बाढ़ और भूस्खलन की लगभग 30 घटनाओं में सेकड़ों लोग मारे जा चुके हैं।

 

Publication link: https://doi.org/10.1016/j.atmosenv.2020.118123

 

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Study indicates association of cloud bursts with forest fires

Are cloud bursts that are increasingly affecting life in the Himalayan foothills linked to the forest fires?

A recent study has found a connection between the formation of the tiny particles, the size of a cloud droplet on which water vapor condenses leading to the formation of clouds and forest fires.  The quantity of such particles called the cloud condensation nuclei (CCNs) were found to have peaks associated with forest fire events.

Scientists from Hemvati Nandan Bahuguna (HNB) Garhwal University and IIT Kanpur jointly measured the activation of cloud condensation nuclei and studied its impact on high altitude cloud formation and complexity of local weather phenomenon under the influence of different weather condition in the ecologically sensitive regions of Central Himalayas for the first time.

Cloud condensation nuclei (CCN), which can activate and grow into fog or cloud droplets in the presence of supersaturation (SS) was measured by a droplet measurement technology’s (DMT) CCN Counter in the pristine Himalayan region at Himalayan Clouds Observatory (HCO), Swami Ram Tirtha (SRT) Campus of Hemvati Nandan Bahuguna (HNB) Garhwal University, Badshahithaul, Tehri Garhwal, Uttarakhand, India.

This observation was carried out under a Climate Change Programme Division, Department of Science & Technology (DST) funded project in collaboration with Hemvati Nandan Bahuguna (HNB) Garhwal University and IIT Kanpur, where the variation of CCN was reported on diurnal, seasonal, and monthly scale.

This first-time study published in the ‘Atmospheric Environment’ journal showed that the highest concentration of CCN was found to be associated with excessive fire forest activities of the Indian subcontinent. There were other peaks also associated with a variety of events, such as long-range transportation and local residential emission.

The study led by Alok Sagar Gautam from HNB Garhwal University Srinagar Uttarakhand and co-authored by S N Tripathi from Indian Institute of Technology, Kanpur, and Abhishek Joshi, Karan Singh, Sanjeev Kumar, R C Ramola from HNB Garhwal University Srinagar Uttarakhand can help improve the understanding of the complex mechanism of cloud burst, weather prediction and climate change condition over this region of Himalayas.

This research will be helpful in source allocation of pollutants reaching the high-altitude regions of Garhwal Himalaya. Also, it will provide the better understanding for the cloud formation mechanism and weather extremities over this region.

 

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