हिमालय पर बढ़ती आपदाओं के लिए स्वयं सरकारें जिम्मेदार : प्रो० सती
- हिमालय में विकास को वैज्ञानिक दृष्टि से देखना जरूरीः सती
- आपदाओं से सबक सीखने की जरूरत
- उत्तरजन की सामाजिक संवाद शृंखला की शुरुआत
—उत्तराखण्ड हिमालय –
देहरादून, 30 अक्टूबर। विकास बेहद जरूरी है लेकिन हिमालयी क्षेत्र में होने वाले विकास कार्यक्रमों को अलग तथा वैज्ञानिक नजर से देखने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो पिछले एक दशक में हुई भारी प्राकृतिक आपदाओं की पुनरावृत्ति कभी भी संभव है। ये बातें रविवार को चन्द्रसिंह गढ़वाली वानिकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एसपी सती ने उत्तरजन के सामाजिक संवाद शृंखला के एक कार्यक्रम में कहीं। वे यहां हिमालय परिवर्तन और विकास की चुनौतियां विषय पर अपनी बात रख रहे थे।
प्रोफ़ेसर सती ने कहा कि हिमालय पर बढ़ती आपदाओं के लिए स्वयं सरकारें जिम्मेदार हैं । इसके लिए उन्होने कई उदहारण पेश किये जिनमे से एक धौली गंगा और ऋषि गंगा की 7 फरबरी 2001 की बाढ़ भी शामिल थी। उन्होंने कहा पहाड़ों पर निरंतर सड़कें बन रही हैं और उनका मलबा नीचे नदी नालों में डाला जा रहा है। उन्होंने केदार घाटी के रामबाड़ा का उदहारण भी दिया जिसमें गढ़वाल मंडल विकास निगम ने नाले में बंगला बनाया तो बाकी लोगों ने उसकी नक़ल कर वहां मकान -दुकानें बनानी शुरू कर दीं और 2013 की केदारनाथ आपदा में रामबाड़ा साफ हो गया। सती ने कहा की पिछले 100 सालों से भी अधिक समय से उत्तराखंड हिमालय क्षेत्र में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया जिस कारण धरती के अंदर बहुत अधिक भूगर्वीय ऊर्जा जमा हो रखी है जो कभी भी भूकंप के रूप में बाहर निकल सकती है। इसलिए हमें उस स्थिति के लिए पहले से तैयार हो जाना चाहिए और सरकार को बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान शुरू करना चाहिए।
प्रो. सती ने कहा कि हिमालय की चिन्ता करना केवल हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की ही जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे विश्व और खासतौर से दक्षिण एशियाई देशों की जिम्मेदारी है। क्योंकि हिमालय एक ऐसी प्राकृतिक संरचना है, जो दक्षिण एशियाई देशों की जलवायु को नियन्त्रित और प्रभावित करती है। उन्होंने कहा कि चाहे बड़े बांधों का विषय हो या पहाड़ों में तेजी से बन रही सड़कों का मामला, विकास की इन सभी गतिविधियों को एक अलग वैज्ञानिक नजरिए से देखना जरूरी है। हिमालय अभी अपने निर्माण की अवस्था में है और बेहद संवेदनशील है। दुनिया में लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। पिछ्ले 200 सालों में ग्लेशियर बहुत पीछे हटे हैं। इसका एक बड़ा कारण मानवीय हस्तक्षेप है। अतः पर्यावरण और विकास के बीच सामंजस्य बनाना सबसे बड़ी चुनौती है।
विषय परिचय कराते हुए जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के पूर्व निदेशक उत्तम सिंह रावत ने आपदा प्रबंधन के मामले में जनजागरूकता को सबसे महत्वपूर्ण बताया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. विनय आनन्द बौड़ाई ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रमों से एक नई ऊर्जा का संचार होता है और अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञ जब सामूहिक रूप से अपनी बात रखते हैं तो नए विचार आते हैं। सरकार पर भी उसका असर दिखाई देता है।उत्तम सिंह रावत ने कहा कि आपदाएं प्राकृतिक नहीं होती। हिमालय पर भूस्खलन, अवलांच और भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाएं होती रहती हैं जिनको इंसान लापरवाही या अनजाने में आपदा बना देता है। उन्होंने कहा कि हम उन घटनाओं को नहीं रोक सकते। हमें आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति के साथ जीना सीखना चाहिए। रावत ने कहा की इस दिशा में वैसा ही जनजागरण अभियान चलना चाहिए जैसा कि पोलियो के लिए चला था. अगर लोग जागरूक हो गए तो फिर प्राकृतिक घटनाएं आपदाएं नहीं बनेंगी। अपने उद्बोधन में भू विज्ञानी उत्तम सिंह रावत ने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए, जिन पर बाद में प्रोफेस्सर सती ने भी सहमति जताई।
कार्यक्रम को उत्तरजन के सचिव सुशील कुमार ने कहा कि समाज की एक शक्ति होती है। जो समाज को बदल भी सकती है। उन्होंने कहा कि समाज द्वारा आवाज उठाना समाज को जागरूक करना और मुद्दे को निचले स्तर तक ले जाना है। इस संवाद के संयोजक लोकेश नवानी ने कहा कि यदि समाज का प्रबुद्ध वर्ग किसी विषय को उठाएगा तो समाज और सरकार का ध्यान आकर्षित होगा। कार्यक्रम का संचालन डॉ प्रेम बहुखण्डी ने किया। आयोजन में डॉ जयन्त नवानी, डॉ विजय बहुगुणा, यू एस रावत, कर्नल आनन्द थपलियाल, डॉ राजेश कुकसाल, डॉ राजीव राणा, डॉ सुधीर बिष्ट, डॉ सुमंगल सिंह, डॉ कुमुदिनी नौटियाल, डॉ अर्चना नौटियाल, दून विश्विद्यालय के प्रोफेसर एच सी पुरोहित, दैनिक हिंदुस्तान के पूर्व सम्पादक दिनेश जुयाल, डॉ पी डी जुयाल, डॉ बी पी नौटियाल, श्रीमती बिमला रावत, श्रीमती निधि सूद, श्रीमती शैल बिष्ट, श्रीमती बीना कन्डारी, संदीप नेगी, आशु जोशी, आदि अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे।