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हिमालय की ऊंचाइयां अंतरिक्ष में भारत की ‘ऊंची छलांग’ के लिए उपयुक्त: अध्ययन

In the paper titled ‘Estimating the link budget of satellite-based Quantum Key Distribution (QKD) for uplink transmission through the atmosphere’, published in EPJ Quantum Technology, Springer Nature, the researchers have mentioned working in the signal band of 370 THz (810 nm). Authors Urbasi Sinha and Satya Ranjan Behera at QuIC lab, have used existing open-source data on temperature, humidity, atmospheric pressure and other vital meteorological parameters from three sites namely — IAO Hanle, Mt Abu in Rajasthan and Aryabhatta Institute of Observational Sciences (ARIES), Nainital in Uttarakhand.

 

 

भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक अग्रणी अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में क्वांटम संकेतों को भेजने के लिए इष्टतम स्थानों का मानचित्रण किया है। क्वांटम कुंजी वितरण (क्यूकेडी) सहित उपग्रह-आधारित क्वांटम संचार वैश्विक स्तर के क्वांटम संचार की दिशा में सबसे आशाजनक दृष्टिकोणों में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं। वायुमंडल के माध्यम से क्वांटम संकेतों को प्रसारित करने की व्यवहार्यता निर्धारित करने के लिए, अपलिंक और डाउनलिंक क्वांटम संचार दोनों के लिए वायुमंडलीय सिमुलेशन आयोजित करना आवश्यक है और इसके लिए संभावित स्थानों की व्यावहारिकता निर्धारित करने की आवश्यकता है।

रमन अनुसंधान संस्थान (आरआरआई) के वैज्ञानिकों ने अपने गहन शोध में भारत के तीन सबसे उन्नत वेधशाला स्थलों पर उपलब्ध मौजूदा मुक्त स्रोत डेटा का विश्लेषण किया और पाया कि लद्दाख की प्राचीन ऊंचाइयों पर स्थित हान्ले स्थित भारतीय खगोलीय वेधशाला (आईएओ) इस क्रांतिकारी प्रौद्योगिकी के लिए सबसे योग्य है।

जबकि कनाडा, यूरोप और चीन जैसे क्षेत्रों में इसी तरह के अध्ययन किए गए हैं, भारत की उल्लेखनीय भौगोलिक विविधता – हिमालय से तटीय मैदानों तक, रेगिस्तान से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों तक – इस विश्लेषण को विशेष रूप से मूल्यवान बना सकती है। विश्लेषण उपग्रह-आधारित क्वांटम संचार की गहन अंतःविषय प्रकृति को ध्यान में रखता है, जहां सफलता उच्च परिशुद्धता दूरबीन संचालन से लेकर जटिल वायुमंडलीय विक्षोभ पैटर्न तक सब कुछ समझने पर निर्भर करती है जो क्वांटम संकेतों का रुप बिगाड़ सकती है।

हान्ले स्थित यह स्थान शुष्क और ठंडा रेगिस्तान है, जहां सर्दियों में तापमान शून्य से 25 से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे तक गिर जाता है; वायुमंडल में जलवाष्प का स्तर और ऑक्सीजन का सान्द्रण निम्न रहता है।

भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्तपोषित स्वायत्त संस्थान आरआरआई में क्वांटम सूचना और कंप्यूटिंग (क्यूआईसी) लैब के प्रमुख प्रोफेसर उर्बशी सिन्हा ने कहा, “हानले में ग्राउंड-स्टेशन स्थापित करने और लंबी दूरी पर क्वांटम संचार करने के लिए सभी आवश्यक प्राकृतिक परिस्थिति उपलब्ध हैं।”

सिग्नल की क्वांटम प्रकृति के अलावा, क्वांटम संचार को सुस्थापित उपग्रह-आधारित संचार से अलग करने वाली बात है सिग्नल बैंड जिसका उपयोग वे दोनों करते हैं। जबकि उपग्रह-संचार मेगा हर्ट्ज़ या गीगा हर्ट्ज़  की आवृत्तियों में काम करता है, क्वांटम संचार टेरा हर्ट्ज़  में संचालित होता है, जिसमें 100 टेरा हर्ट्ज़  सबसे आम तौर पर तरंगदैर्ध्य में दर्शाया जाता है, जिसे अक्सर नैनोमीटर में दर्शाया जाता है।

ईपीजे क्वांटम टेक्नोलॉजीस्प्रिंगर नेचर में प्रकाशित ‘ वायुमंडल के माध्यम से अपलिंक ट्रांसमिशन के लिए उपग्रह-आधारित क्वांटम कुंजी वितरण (क्यूकेडी) के लिंक बजट का अनुमान लगाना ‘ शीर्षक वाले पेपर में शोधकर्ताओं ने 370 टीएचजेड (810 एनएम ) के सिग्नल बैंड में काम करने का उल्लेख किया है। क्यूआईसी लैब के लेखक उर्वशी सिन्हा और सत्य रंजन बेहरा ने तीन साइटों – राजस्थान में माउंट आबू के आईएओ हानले और उत्तराखंड में आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान संस्थान (एआरआईईएस), नैनीताल से तापमान, आर्द्रता, वायुमंडलीय दबाव और अन्य महत्वपूर्ण मौसम संबंधी मापदंडों पर मौजूदा ओपन-सोर्स डेटा का उपयोग किया है।

सिन्हा ने कहा, “भारत में भौगोलिक क्षेत्र बहुत विशाल और विविधतापूर्ण है और यह विविधता संभावित रूप से इसे एक सार्वभौमिक आदर्श के रूप में काम में ला सकती है जिसे भारत या विश्व में कहीं भी लागू किया जा सकता है। यह बहुमुखी प्रतिभा भविष्य में दुनिया भर में क्वांटम उपग्रह परियोजनाओं के लिए अनुसंधान को अमूल्य बना सकती है।”

इस कार्य में निम्न पृथ्वी कक्षा (एलईओ) में परिक्रमा करने वाले सुरक्षित उपग्रह-आधारित क्वांटम संचार स्थापित करने के लिए प्रस्तावित उपग्रहों पर विचार किया गया है, जहाँ पृथ्वी से अधिकतम ऊँचाई 500 किलोमीटर है। क्वांटम संचार स्थापित करने के लिए, किसी को शुरू में किसी विशेष स्थान के ग्राउंड स्टेशन से हर बार एक बीकन सिग्नल भेजना पड़ता है, जब भी निर्दिष्ट उपग्रह उस स्थान के करीब मँडराता है। एक बार जब उपग्रह द्वारा बीकन सिग्नल का पता लगा लिया जाता है, तो उपग्रह द्वारा ग्राउंड स्टेशन को लॉक करने के लिए एक और बीकन सिग्नल भेजा जाता है। इसके बाद यह क्वांटम सिग्नल ट्रांसमिशन की सुविधा के लिए तैयार हो जाता है।

शोध पत्र के मुख्य लेखक सत्य रंजन बेहरा ने कहा, “बीकन सिग्नल का उपयोग चलते हुए उपग्रह को ट्रैक करने और उसे संबंधित टेलीस्कोप की ओर इंगित करने के लिए किया जाता है। हमारा मुख्य सिग्नल 810 एनएम पर होगा जबकि अपलिंक और डाउनलिंक क्रमशः 532 एनएम और 1550 एनएम तरंगदैर्ध्य का उपयोग करेंगे।”

मुख्य चुनौती एक ऐसे स्थान की पहचान करना है जो उन्हें बहुस्तरीय और जटिल पृथ्वी के वायुमंडल से होकर क्वांटम सिग्नल भेजने की अनुमति दे सके और साथ ही रिसीवर उपग्रह तक यात्रा जारी रख सके।

बेहेरा ने बताया, “500 किलोमीटर की दूरी तक किरण को संचारित करने के लिए, किरण की चौड़ाई को बढ़ाना पड़ता है और इसका विचलन न्यूनतम होना चाहिए। इसलिए, इस उद्देश्य के लिए एक दूरबीन का उपयोग किया जाता है और आदर्श रूप से, छोटी दूरबीनें सबसे उपयुक्त होती हैं। उसी तरह, दूरबीन के रिसीवर पक्ष का उपयोग पता लगाने के उद्देश्यों के लिए किरण को इकट्ठा करने और कम करने के लिए किया जाता है।”

अपने विश्लेषण के आधार पर, आरआरआई शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि संभावित ग्राउंड स्टेशन की स्थापना के लिए इस अध्ययन में भारत में जिन स्थानों पर विचार किया गया उनमें आईएओ हानले (सिग्नल लॉस – 44 डीबी) आदर्श था। उन्होंने कहा कि दो अगले सर्वश्रेष्ठ स्थान माउंट आबू (सिग्नल लॉस – 47 डीबी) और नैनीताल (सिग्नल लॉस – 48 डीबी) थे, जहाँ कुछ अपरिहार्य सिग्नल लॉस की संभावना थी। यह अध्ययन क्वांटम संचार उद्देश्यों के लिए भारतीय ग्राउंड-स्टेशनों को अंतिम रूप देने से पहले लिंक-बजट का अनुमान लगाने का आधार बन सकता है।

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