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अपने उद्देश्यों से भटक गया गढ़वाल मंडल का सबसे बड़ा विकास उत्सव, गौचर मेला

-गौचर से दिग्पाल गुसांईं-
संस्कृति को जीवंत बनाए रखने वाला एक मात्र गौचर औद्योगिक विकास एवं सांस्कृतिक मेला एक दौर में मंडल का सबसे बड़ा विकास उत्सव माना जाता था। लेकिन समय के साथ साथ मेला उद्देश्यों से भटक गया लगता है। सात दशक पूर्व यह व्यापार मेला यहां की समृद्धि को दर्शाता था। अब जिस प्रकार से मेले को पाश्चात्य संस्कृति की ओर धकेला जा रहा है इससे यहां की पौराणिक संस्कृति को भी धक्का लगा है। इस बार यह मेला अपनी 72 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है।

ऐतिहासिक संस्कृति तथा औद्योगिक विकास की दृष्टि से जनपद चमोली के गौचर के विशाल मैदान में लगने वाले इस मेले का इतिहास जहां हमारी प्राचीन सभ्यता से जुड़ा है वहीं सीमाओं का उल्लेख भी है। ऐसा ही मेला अंग्रेजी हुकूमत के समय कुमाऊं मण्डल के पिथौरागढ़ जनपद के जौलजीबी में शुरू किया गया था। इस मेले में भारत तिब्बत व्यापार का आदान-प्रदान किया जाता था।

सन् 1943 में गढ़वाल के प्रख्यात पत्रकार स्व गोविंद प्रसाद नौटियाल,नाथू सिंह पाल,जमन सिंह सयाना,पान सिंह बंपाल, भोपाल सिंह राणा आदि सुदूरवर्ती क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों के एक शिष्टमंडल ने तत्कालीन गढ़वाल के जिलाधिकारी आर डी बर्नीडी से मिलकर इस मेले को जनपद चमोली के गौचर में भी आयोजित करने का आग्रह किया। तब से यह मेला 1947 तक यहां एक से सात नवंबर तक आयोजित किया जाता था।

1947 में देश के स्वतंत्र होने पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन 14 नवंबर से 20 नवंबर तक विभिन्न समितियों के माध्यम से संचालित किया जाने लगा। इस मेले में भोटिया जनजाति के लोग तिब्बत से बकरियों में लादकर ऊन,नमक,सोने चांदी के आभूषणों के अलावा तमाम प्रकार के सामानों को लाकर मेले में बेचते थे। बदले में यहां से गुड़,बेस कीमती जड़ी बूटी निर्यात करते थे। इसलिए इस मेले को भोटिया मेला भी कहा जाता था।

वर्ष 1960 में जनपद चमोली के अलग सीमांत जनपद सृजित होने व भारत तिब्बत व्यापार पर प्रतिबंध लग जाने से यहां के लिए नमक व अन्य आवश्यक वस्तुएं मैदानी भागों से आने लगा और मेले का स्वरूप ही बदल गया। तब इस मेले को व्यापक रूप देने किए मेले को विकास के आयामों से जोड़ा गया। और मेले में विकास से संबंधित तमाम प्रकार के कार्यक्रम आयोजित कर लोगों को विकास से संबंधित जानकारियां दी जाने लगी।

इसके अलावा लोगों के मनोरंजन के लिए खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाने ौलगे और मेला निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता चला गया। तब मेले को औधोगिक विकास प्रदर्शनी नाम दिया गया। क्षेत्रीय बोली भाषा में इस मेले को नुमाइश भी कहा जाता था। नतीजतन क्षेत्र के कास्तकार मेले में अपने उत्पादों को लाकर अपने को प्रगतिशील कास्तकार सिद्ध करने में जुट जाते थे। उनका मनोबल और बड़े इसके लिए उनको उचित ईनाम भी दिया जाता था।

अब कास्तकारों को इस कदर हांसिए पर धकेल दिया गया है। नौबत ऐसी आ गई है कि उद्यान विभाग गावों की खाक छान कर प्रदर्शनी के लिए उत्पाद जुटा पाता। श्वेत क्रांति को बढ़ावा मिले इसके लिए पशु प्रदर्शनी आयोजित कर अच्छे पशु पालने वाले पशुपालकों को उचित ईनाम दिया जाता था।

पहले यह प्रदर्शनी 14 नवंबर को आयोजित होती थी। कुछ सालों बाद इसकी तिथि बदलकर 15 नवंबर की गई अब इसे भी बंद कर दिया गया है। यही नहीं विकास कार्यों में पारदर्शिता आए इसके लिए पत्रकार वार्ता आयोजित की जाती थी। यह वार्ता पहले समापन के दिन आयोजित की जाती थी बाद में इसकी भी तिथि बदलकर 19 नवंबर की गई अब कुछ सालों से इसको भी बंद कर दिया गया है।

शुरूवात में 25 हजार रुपए में संचालित होने वाला यह मेला अब करोड़ से ऊपर की धनराशि में संचालित होने लगा है। बावजूद इसके मेला लोगों के मन मस्तिष्क पर छाप नहीं छोड़ पा रहा है। शुरूआती दौर में मेले का आयोजन जिला पंचायत के माध्यम से किया जाता था।1990 में स्थानीय निकायों के गठित होने के बाद कुछ सालों तक इसका आयोजन नगर पंचायत गौचर ने भी किया।

जबसे मेले को प्रशासन के हाथों सौंपा गया तबसे हर कोई इस मेले को प्रयोगशाला के रूप में आयोजित करता आ रहा है। विभिन्न कारणों से नौ बार स्थगित होने के बाद इस बार यह मेला अपनी 72 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। इस बार मेला अध्यक्ष के रूप में जिलाधिकारी संदीप तिवारी के नेतृत्व में आयोजित होने जा रहे इस मेले कई सुधार किए गए हैं।

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