उक्रान्द : कब तक गाएंगे शोक गीत,how-long-the-UKD-will-continue-to-sing-its-death-knell

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-दिनेश सेमवाल शास्त्री
मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी द्वारा लिखी गई ‘रुदाली’ नाम की बंगाली कहानी पर 1993 में एक फिल्म बनाई गई थी, जिसे न सिर्फ दर्शकों द्वारा काफी सराहा गया बल्कि कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया था। लेकिन यहाँ मैं इस फिल्म की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह सिर्फ आलम्बन भर है। बात है उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना के लिए झंडाबरदार रही पार्टी उत्तराखण्ड क्रांति दल की, जो क्षेत्रीय अस्मिता, विकास के सपने और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए 1979 में बना था। निसंदेह उत्तराखण्ड का जो आकार सामने है, उसके शिल्प में काफी कुछ योगदान इसी पार्टी का है। जसवंत सिंह बिष्ट ने ही सबसे पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा में अलग राज्य का प्रस्ताव रखा था और उसके बाद ही कौशिक समिति और ब द् थ्वाल समिति बनी और तमाम आंदोलन हुए। हालांकि उससे पहले 1987 में भाजपा के सोबन सिंह जीना ने उत्तरांचल उत्थान मोर्चा बना कर आंदोलन को हवा दी थी और उसके अगले ही साल 1988 में लाल कृष्ण आडवानी की अध्यक्षता में अल्मोड़ा में हुई बैठक में भाजपा ने उत्तराखंड राज्य की जरूरत को रेखांकित किया लेकिन राज्य आंदोलन का अगुवा उक्रान्द ही रहा। बेशक 1987 में इस पार्टी में विभाजन के बाद काशी सिंह ऐरी को नेतृत्व मिला तो युवा जोश ने हिलोरे ली और आंदोलन आगे बढ़ता रहा, जो वर्ष 2000 के नवम्बर में हमारे सामने आया। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि जब पूरे देश में क्षेत्रीय पार्टियां उभार पर हैं, उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय पार्टी के लिए शोक गीत गाया जा रहा है। यही नहीं महाश्वेता देवी की कहानी रुदाली की तरह उक्रान्द के लिए शोक गीत गाने वाले भाडे पर बुलाने पड़ रहे हैं।
इतिहास पर एक नजर :
उत्तराखण्ड क्रान्ति दल की स्थापना उत्तर प्रदेश के पर्वतीय ज़िलों से बने एक अलग राज्य के निर्माण आन्दोलन हेतु 26 जुलाई 1979 को हुई थी। उक्रान्द की स्थापना कुमाऊँ विश्वविद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति डॉ. डी.डी. पन्त की अध्यक्षता में हुए सम्मलेन में हुई थी। 42 साल पहले तब उक्राद के झण्डे तले अलग राज्य की माँग ने एक बड़े राजनीतिक संघर्ष और जन आन्दोलन का स्वरूप ले लिया था। इसके साक्षी आप और हम सभी रहे हैं। 9 नवम्बर 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व में आया जिसे बाद में 1 जनवरी 2007 को उत्तराखण्ड का नाम दिया गया। काशी सिंह ऐरी के युवा नेतृत्व के अंतर्गत राज्य के प्रथम विधानसभा चुनाव 2002 में, पार्टी को 70 सीटों में से मात्र 4 सीटों पर जीत हासिल हुई लेकिन राज्य में चुनावी लाभ और सरकारों के गठन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बनाने में 2012 तक उक्रान्द सफल रहा, परन्तु अलग राज्य आन्दोलन में देर से सक्रिय होने के बावज़ूद कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने उक्रान्द को राज्य की राजनीति में हाशिये पर धकेल दिया।
गुटबाजी से नहीं बच पाया उक्रान्द : उत्तराखण्ड क्रान्ति दल अब तक आन्तरिक विभाजन और गुटबाज़ी के कारण उत्तराखण्ड की राजनीति में तीसरी शक्ति स्थापित करने के अपने मूल लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सका है। आज तो स्थिति यह आ गई है कि राज्य की राजनीति में कहीं भी गिनती में न आने वाले राष्ट्रीय लोक दल से भी पीछे उक्रान्द हो गया है।
उत्तराखण्ड क्रांति दल पहाड़वासियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान की दिशा में अतीत में विभिन्न अभियानों में सक्रिय रहा है। यह सच है कि इस पार्टी ने समावेशी विकास की आकान्क्षा में उत्तराखण्डी पहचान को परिभाषित करने और उत्तराखण्ड में रहने वाले सभी लोगों की विविधता की चिंताओं को अपनाया था लेकिन आज धरातल पर जो स्थिति है, उसे देख कर सिर्फ रुदन की ही गुंजाईश बचती है। एक दौर में उक्रान्द में राजनीति के जानकार लोगों को स्कॉटिश नेशनल पार्टी या प्लेड सायम्रू जैसी वामपंथी राष्ट्रवादी दल का प्रतिबिम्ब नजर आता था। लेकिन वस्तुत उक्रान्द मूलत राष्ट्रवादी क्षेत्रीय दल ही है।
निरंतर घटता ग्राफ :
वर्ष 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में उक्रान्द को चार सीटें मिली थी। 2007 में यह संख्या घट कर तीन रह गई। 2012 के चुनाव में एक सीट पर उक्रान्द सिमट गया तो 2017 और 2022 में वह शून्य से आगे क्यों नहीं बढ़ पाया? यह सवाल उन सभी को कष्ट पहुचाता है जो इस दल को राज्य निर्माण का ध्वजवाहक मानते और जानते हैं।
चिन्ता कौन करे?
सुदूर तमिलनाडु में देखिए द्र्मुक और अन्नाद्र्मुक बारी बारी से सत्तासीन होते आ रहे हैं, आन्ध्र, तेलगाना, बंगाल, झारखण्ड, महाराष्ट्र, उड़ीसा सब जगह देखिए क्षेत्रीय दल अपना अस्तित्व सिद्ध करते आ रहे हैं लेकिन उत्तराखण्ड में ऐसा क्या है कि क्षेत्रीय दल के लिए कोई खाद पानी नहीं है। यहाँ कब तक शोक गीत गाया जाता रहेगा और महगांई के इस दौर में भाडे पर शोक गीत गाने के लिए रुदाली कहां से लाएंगे?
आगे क्या: उत्तराखंड क्रान्ति दल को खुद ही अपने दोष दूर करने होंगे। जनता को दोष देने से कुछ नहीं होगा। आप इस ढाल के पीछे भी नहीं बच सकते कि सन्साधनो की कमी और चुनाव में होने वाले दंद फंद में मुकाबला करना कठिन है। इसके लिए पार्टी के नेता ही दोषी हैं। क्या यह नहीं हो सकता था कि समान विचार वाले दलों का मोर्चा बना लेते लेकिन वहाँ नेताओं की महत्वांकाक्षा प्रभावित होती है। जब तक पार्टी में यह सब रहेगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। इस शोक गीत के मंजर को विजय गान में बदलने के लिए उक्रान्द नेताओं को ही खोल से बाहर आना होगा।
आपको याद होगा 2022 के चुनाव अभियान से पहले कांग्रेस के बड़े नेता की पार्टी में किरकिरी होने लगी तो उक्रान्द के नेता बिछ गए थे। मानो वही अब भव सागर से पार लगा देंगे। इतना सस्तापन भी तो पार्टी की इमेज को खोखला ही कर गया। राज्य बनने के 22 साल बाद भी जब आप ढंग का ऑफिस नहीं बना पाये तो बाकी की क्या उम्मीद लोग करें? इन सवालों का जवाब है किसी के पास?
अब तो उसकी कुर्सी (चुनाव चिह्न) भी उसकी नहीं रही और न प्रदेश की राजनीति में कोई हैसियत। इस तरह यूँ ओझल हो जाना आखिर सवाल खड़े तो करता है। ऐसे में महाश्वेता देवी की कहानी रुदाली के अलावा बचा भी क्या है?

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