–जय सिंह रावत
दैवी आपदाओं के लिए अति संवेदनशील हिमालयी राज्य उत्तराखंड में इस साल का मानसून आते ही छ गया है. मानसून के आते ही उत्तराखंड में बादल फटने, त्वरित बाढ़, भस्खलन और आकाशीय बिजली गिरने जैसी आपदाओं के खतरे भी मंडराने लगे हैं। मानसून एक मौसमी पवन पैटर्न है जो दुनिया के कुछ क्षेत्रों, विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के कुछ हिस्सों में महत्वपूर्ण वर्षा लाता है। जबकि मानसून कृषि, जल संसाधनों और समग्र जलवायु पैटर्न के लिए महत्वपूर्ण है। पिछले 100 वर्षों के दौरान भारत में अनुभव किए गए सबसे खराब मानसूनों में से एक 1943 का मानसून था जिसके कारण बंगाल का अकाल पड़ा था। यह विनाशकारी दैवी प्रकोप द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई थी । मानसून की विफलता के कारण बंगाल क्षेत्र में व्यापक सूखा और फसल बर्बाद हो गई, जिससे भोजन की गंभीर कमी हो गई। अकाल विशेष रूप से विनाशकारी था, जिससे भुखमरी और संबंधित बीमारियों के कारण अनुमानित 2 से 3 मिलियन लोगों की मृत्यु हो गई। इसलिए मानसून पर विस्तृत जानकारी इस आलेख में दी जा रही है।
भारत में सबसे विनाशकारी मानसून
पिछले 100 वर्षों के दौरान भारत में सबसे विनाशकारी मानसून मौसम 1974 का मानसून मन जाता है । इसने देश के कई हिस्सों, विशेषकर बिहार राज्य में बड़े पैमाने पर बाढ़ और तबाही ला दी। 1974 के मानसून के मौसम के दौरान, भारी वर्षा, नदियों के उफान और खराब जल निकासी प्रणालियों के कारण बिहार में बड़े पैमाने पर बाढ़ आ गई। कोसी नदी, जिसे “बिहार का शोक” कहा जाता है, ने अपने तटबंधों को तोड़ दिया, जिससे घरों, बुनियादी ढांचे और कृषि क्षेत्रों को व्यापक नुकसान हुआ। बाढ़ के पानी ने लाखों लोगों को प्रभावित किया, बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित किया और जान-माल का काफी नुकसान हुआ।
उत्तराखंड में सबसे विनाशकारी 2013 का
उत्तराखंड में सबसे विनाशकारी मानसून वर्ष 2013 का था। जिसके कारण टोंस से लेकर काली/ शारदा तक जल प्रलय की जैसी स्थिति बन गयी थी । उसी मानसून का दुष्परिणाम केदारनाथ की अकल्पनीय आपदा थी। उस त्रासदी में 4 हजार से अधिक लोग मारे गए, कई घायल हुए, कई यात्रियों के मानसिक संतुलन बिगड़े और हजारों लोग बेघरबार हो गए । जून की 16 रारीख को आ धमका यह मानसून अप्रत्याशित था, क्योंकि उत्तराखंड में मानसून सामान्यतः 20 जून के बाद ही पहुँचता है और उससे पहले प्री मानसून बारिश शुरू हो जाती है। हिमालय पर स्नो लाइन ग्रीष्म ऋतु की गर्मी बढ़ने से साथ पीछे खिसकती है । लेकिन उस समय से मानसून के समय समय से पहले आने से वह बर्फ में ही बरस गया। जिस कारण ज्यादा बर्फ पिघलने से हिमानियों पर आधारित नदियां उफन गयीं। केदारनाथ में बादल चोराबाड़ी ग्लेशियर में जा कर फट गया। जिसका नतीजा केदारनाथ में विनाशकारी बाढ़ के रूप में सामने आया।
मानसून का सफर, समुद्र से हिमालय तक
ग्रीष्म ऋतु में जब हिन्द महासागर में सूर्य विषुवत रेखा के ठीक ऊपर होता है तो मानसून बनता है। इस प्रक्रिया में समुद्र गरमाने लगता है और उसका तापमान 30 डिग्री तक पहुंच जाता है। वहीं उस दौरान धरती का तापमान 45-46 डिग्री तक पहुंच चुका होता है। ऐसी स्थिति में हिन्द महासागर के दक्षिणी हिस्से में मानसूनी हवाएं सक्रिय होती हैं। ये हवाएं आपस में क्रॉस करते हुए विषुवत रेखा पार कर एशिया की तरफ बढ़ने लगती हैं। इसी दौरान समुद्र के ऊपर बादलों के बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। विषुवत रेखा पार करके हवाएं और बादल बारिश करते हुए बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का रुख करते हैं। इस दौरान देश के तमाम हिस्सों का तापमान समुद्र तल के तापमान से अधिक हो जाता है। ऐसी स्थिति में हवाएं समुद्र से जमीन की ओर बहनी शुरू हो जाती हैं। ये हवाएं समुद्र के जल के वाष्पन से उत्पन्न जल वाष्प को सोख लेती हैं और पृथ्वी पर आते ही ऊपर उठती हैं और वर्षा देती हैं। बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में पहुंचने के बाद मानसूनी हवाएं दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। एक शाखा अरब सागर की तरफ से मुंबई, गुजरात राजस्थान होते हुए आगे बढ़ती है तो दूसरी शाखा बंगाल की खाड़ी से पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वोत्तर होते हुए हिमालय से टकरा कर गंगीय क्षेत्रों की ओर मुड़ जाती हैं और इस प्रकार जुलाई के पहले सप्ताह तक पूरे देश में झमाझम पानी बरसने लगता है।
मानसून का मिजाज भांपना अभी भी मुश्किल
एक और रोचक बात। पुराने जमाने में मानसून को जानने के लिए न तो सैटेलाइट थे, और न ही समुद्र में लगने वाले उपकरण। लेकिन विशेषज्ञ तब भी पक्षियों के व्यवहार, हवाओं के पैटर्न तथा पेड़-पौधों के आधार पर मानसून के आगमन का आभास पा लेते थे। तब के पूर्वानुमान आज के आधुनिक पूर्वानुमानों से खराब नहीं होते थे। देश में गर्मी की शुरुआत होते ही किसान मानसून पर टकटकी लगाकर बैठ जाते हैं। लेकिन मानसून एक ऐसी अबूझ पहेली है जिसका अनुमान लगाना बेहद जटिल है। कारण यह है कि भारत में विभिन्न किस्म के जलवायु जोन और उप जोन हैं। हमारे देश में 127 कृषि जलवायु उप संभाग हैं और 36 संभाग हैं। हमारा देश विविध जलवायु वाला है। समुद्र, हिमालय और रेगिस्तान मानसून को प्रभावित करते हैं। इसलिए मौसम विभाग के तमाम प्रयासों के बावजूद मौसम के मिजाज को सौ फीसदी भांपना अभी भी मुश्किल है।
मानसून विभाग अप्रैल के मध्य में मानसून को लेकर दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करता है। इसके बाद फिर मध्यम अवधि और लघु अवधि के पूर्वानुमान जारी होते हैं। ‘नाऊ कास्ट’ करके मौसम विभाग ने अब कुछ घंटे पहले भी मौसम की भविष्यवाणी करनी आरंभ कर दी है। मौसम विभाग की भविष्यवाणियों में हाल के वर्षों में सुधार हुआ है। इधर, देश भर में कई जगहों पर डाप्लर राडार लगाए जाने हैं जिससे आगे स्थिति और सुधरेगी। अभी मध्यम अवधि की भविष्यवाणियां जो 15 दिन से एक महीने की होती हैं, 70-80 फीसदी तक सटीक निकलती है। हां, लघु अवधि की भविष्यवाणियां जो अगले 24 घंटों के लिए होती हैं करीब 90 फीसदी तक सही होती हैं। अलबत्ता, नाऊ कास्ट की भविष्यवाणियां करीब-करीब 99 फीसदी सही निकलती हैं।
मानसून शब्द का सबसे पहले प्रयोग
अरबी शब्द मौसिम से मानसून निकला जिसका अर्थ है हवाओं का मिजाज। 16वीं सदी में मानसून शब्द का सबसे पहले प्रयोग समुद्र मार्ग से होने वाले व्यापार के संर्दभ में हुआ। उस दौरान भारतीय व्यापारी शीत ऋतु में इन हवाओं के सहारे व्यापार के लिए अरब व अफ्रीकी देश जाते थे और ग्रीष्म ऋतु में अपने देश वापस लौटते थे। शीत ऋतु में हवाएं उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती हैं जिसे शीत ऋतु का मानसून कहा जाता है। उधर, ग्रीष्म ऋतु में हवाए इसके विपरीत बहती हैं, जिसे दक्षिण पश्चिम मानसून या गर्मी का मानसून कहा जाता है। इन हवाओं से व्यापारियों को नौकायन में सहायता मिलती थी। इसलिए इन्हें व्यापारिक हवाएं या ट्रेड विंड भी कहा जाता है। एक और रोचक बात, पुराने जमाने में नावों में इंजन नहीं होते थे और वे मानसूनी हवाओं के सहारे चलती थीं। आज इंजन वाली नौकाएं एवं जहाज आ गए हैं। लेकिन ट्रेड विंड आज भी यात्रा में कारगर हैं। यदि विंड पैटर्न के हिसाब से कोई जहाज चल रहा है तो वह कम ईंधन खर्च करके ज्यादा गति से चल सकता है।
मानसून के बारे में रोचक तथ्य
- केरल में मानसून जून के शुरू में दस्तक देता है और अक्टूबर तक करीब पांच महीने रहता है, जबकि राजस्थान में सिर्फ डेढ़ महीने ही मानसूनी बारिश होती है। वहीं से मानसून की विदाई होती है।
- यदि हिमालय पर्वत नहीं होता तो उत्तर भारत के मैदानी इलाके मानसून से वंचित रह जाते। मानसूनी हवाएं बंगाल की खाड़ी से आगे बढ़ती हैं और हिमालय से टकराकर वापस लौटते हुए उत्तर भारत के मैदानी इलाकों को भिगोती हैं।
- हिन्द महासागर में उत्पन्न होता है और मई के दूसरे सप्ताह में बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान निकोबार द्वीपों में मानसून दस्तक देता है। एक जून को केरल में आगमन होता है।
- देश में मानसून के चार महीनों में 89 सेटीमीटर औसत बारिश होती है। 80 फीसदी बारिश मानसून के चार महीनों जून-सितंबर के दौरान होती है।
- देश की 65 फीसदी खेती-बाड़ी मानसूनी बारिश पर निर्भर है। बिजली उत्पादन, भूजल का पुनर्भरण, नदियों का पानी भी मानसून पर निर्भर है।
- पश्चिम तट और पूर्वोत्तर के राज्यों में 200 से एक हजार सेमी बारिश होती है जबकि राजस्थान और तमिलनाडु के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां मानसूनी बारिश सिर्फ 10-15 सेमी बारिश होती है।
गया है. मानसून के आते ही उत्तराखंड में बादल फटने, त्वरित बाढ़, भस्खलन और आकाशीय बिजली गिरने जैसी आपदाओं के खतरे भी मंडराने लगे हैं। मानसून एक मौसमी पवन पैटर्न है जो दुनिया के कुछ क्षेत्रों, विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के कुछ हिस्सों में महत्वपूर्ण वर्षा लाता है। जबकि मानसून कृषि, जल संसाधनों और समग्र जलवायु पैटर्न के लिए महत्वपूर्ण है। पिछले 100 वर्षों के दौरान भारत में अनुभव किए गए सबसे खराब मानसूनों में से एक 1943 का मानसून था जिसके कारण बंगाल का अकाल पड़ा था। यह विनाशकारी दैवी प्रकोप द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई थी । मानसून की विफलता के कारण बंगाल क्षेत्र में व्यापक सूखा और फसल बर्बाद हो गई, जिससे भोजन की गंभीर कमी हो गई। अकाल विशेष रूप से विनाशकारी था, जिससे भुखमरी और संबंधित बीमारियों के कारण अनुमानित 2 से 3 मिलियन लोगों की मृत्यु हो गई। इसलिए मानसून पर विस्तृत जानकारी इस आलेख में दी जा रही है।
भारत में सबसे विनाशकारी मानसून
पिछले 100 वर्षों के दौरान भारत में सबसे विनाशकारी मानसून मौसम 1974 का मानसून मन जाता है । इसने देश के कई हिस्सों, विशेषकर बिहार राज्य में बड़े पैमाने पर बाढ़ और तबाही ला दी। 1974 के मानसून के मौसम के दौरान, भारी वर्षा, नदियों के उफान और खराब जल निकासी प्रणालियों के कारण बिहार में बड़े पैमाने पर बाढ़ आ गई। कोसी नदी, जिसे “बिहार का शोक” कहा जाता है, ने अपने तटबंधों को तोड़ दिया, जिससे घरों, बुनियादी ढांचे और कृषि क्षेत्रों को व्यापक नुकसान हुआ। बाढ़ के पानी ने लाखों लोगों को प्रभावित किया, बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित किया और जान-माल का काफी नुकसान हुआ।
उत्तराखंड में सबसे विनाशकारी 2013 का
उत्तराखंड में सबसे विनाशकारी मानसून वर्ष 2013 का था। जिसके कारण टोंस से लेकर काली/ शारदा तक जल प्रलय की जैसी स्थिति बन गयी थी । उसी मानसून का दुष्परिणाम केदारनाथ की अकल्पनीय आपदा थी। उस त्रासदी में 4 हजार से अधिक लोग मारे गए, कई घायल हुए, कई यात्रियों के मानसिक संतुलन बिगड़े और हजारों लोग बेघरबार हो गए । जून की 16 रारीख को आ धमका यह मानसून अप्रत्याशित था, क्योंकि उत्तराखंड में मानसून सामान्यतः 20 जून के बाद ही पहुँचता है और उससे पहले प्री मानसून बारिश शुरू हो जाती है। हिमालय पर स्नो लाइन ग्रीष्म ऋतु की गर्मी बढ़ने से साथ पीछे खिसकती है । लेकिन उस समय से मानसून के समय समय से पहले आने से वह बर्फ में ही बरस गया। जिस कारण ज्यादा बर्फ पिघलने से हिमानियों पर आधारित नदियां उफन गयीं। केदारनाथ में बादल चोराबाड़ी ग्लेशियर में जा कर फट गया । जिसका नतीजा केदारनाथ में विनाशकारी बाढ़ के रूप में सामने आया।
मानसून का सफर, समुद्र से हिमालय तक
ग्रीष्म ऋतु में जब हिन्द महासागर में सूर्य विषुवत रेखा के ठीक ऊपर होता है तो मानसून बनता है। इस प्रक्रिया में समुद्र गरमाने लगता है और उसका तापमान 30 डिग्री तक पहुंच जाता है। वहीं उस दौरान धरती का तापमान 45-46 डिग्री तक पहुंच चुका होता है। ऐसी स्थिति में हिन्द महासागर के दक्षिणी हिस्से में मानसूनी हवाएं सक्रिय होती हैं। ये हवाएं आपस में क्रॉस करते हुए विषुवत रेखा पार कर एशिया की तरफ बढ़ने लगती हैं। इसी दौरान समुद्र के ऊपर बादलों के बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। विषुवत रेखा पार करके हवाएं और बादल बारिश करते हुए बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का रुख करते हैं। इस दौरान देश के तमाम हिस्सों का तापमान समुद्र तल के तापमान से अधिक हो जाता है। ऐसी स्थिति में हवाएं समुद्र से जमीन की ओर बहनी शुरू हो जाती हैं। ये हवाएं समुद्र के जल के वाष्पन से उत्पन्न जल वाष्प को सोख लेती हैं और पृथ्वी पर आते ही ऊपर उठती हैं और वर्षा देती हैं। बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में पहुंचने के बाद मानसूनी हवाएं दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं। एक शाखा अरब सागर की तरफ से मुंबई, गुजरात राजस्थान होते हुए आगे बढ़ती है तो दूसरी शाखा बंगाल की खाड़ी से पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वोत्तर होते हुए हिमालय से टकराकर गंगीय क्षेत्रों की ओर मुड़ जाती हैं और इस प्रकार जुलाई के पहले सप्ताह तक पूरे देश में झमाझम पानी बरसने लगता है।
मानसून का मिजाज भांपना अभी भी मुश्किल
एक और रोचक बात। पुराने जमाने में मानसून को जानने के लिए न तो सैटेलाइट थे, और न ही समुद्र में लगने वाले उपकरण। लेकिन विशेषज्ञ तब भी पक्षियों के व्यवहार, हवाओं के पैटर्न तथा पेड़-पौधों के आधार पर मानसून के आगमन का आभास पा लेते थे। तब के पूर्वानुमान आज के आधुनिक पूर्वानुमानों से खराब नहीं होते थे। देश में गर्मी की शुरुआत होते ही किसान मानसून पर टकटकी लगाकर बैठ जाते हैं। लेकिन मानसून एक ऐसी अबूझ पहेली है जिसका अनुमान लगाना बेहद जटिल है। कारण यह है कि भारत में विभिन्न किस्म के जलवायु जोन और उप जोन हैं। हमारे देश में 127 कृषि जलवायु उप संभाग हैं और 36 संभाग हैं। हमारा देश विविध जलवायु वाला है। समुद्र, हिमालय और रेगिस्तान मानसून को प्रभावित करते हैं। इसलिए मौसम विभाग के तमाम प्रयासों के बावजूद मौसम के मिजाज को सौ फीसदी भांपना अभी भी मुश्किल है।
मानसून विभाग अप्रैल के मध्य में मानसून को लेकर दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करता है। इसके बाद फिर मध्यम अवधि और लघु अवधि के पूर्वानुमान जारी होते हैं। ‘नाऊ कास्ट’ करके मौसम विभाग ने अब कुछ घंटे पहले भी मौसम की भविष्यवाणी करनी आरंभ कर दी है। मौसम विभाग की भविष्यवाणियों में हाल के वर्षों में सुधार हुआ है। इधर, देश भर में कई जगहों पर डाप्लर राडार लगाए जाने हैं जिससे आगे स्थिति और सुधरेगी। अभी मध्यम अवधि की भविष्यवाणियां जो 15 दिन से एक महीने की होती हैं, 70-80 फीसदी तक सटीक निकलती है। हां, लघु अवधि की भविष्यवाणियां जो अगले 24 घंटों के लिए होती हैं करीब 90 फीसदी तक सही होती हैं। अलबत्ता, नाऊ कास्ट की भविष्यवाणियां करीब-करीब 99 फीसदी सही निकलती हैं।
मानसून शब्द का सबसे पहले प्रयोग
अरबी शब्द मौसिम से मानसून निकला जिसका अर्थ है हवाओं का मिजाज। 16वीं सदी में मानसून शब्द का सबसे पहले प्रयोग समुद्र मार्ग से होने वाले व्यापार के संर्दभ में हुआ। उस दौरान भारतीय व्यापारी शीत ऋतु में इन हवाओं के सहारे व्यापार के लिए अरब व अफ्रीकी देश जाते थे और ग्रीष्म ऋतु में अपने देश वापस लौटते थे। शीत ऋतु में हवाएं उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती हैं जिसे शीत ऋतु का मानसून कहा जाता है। उधर, ग्रीष्म ऋतु में हवाए इसके विपरीत बहती हैं, जिसे दक्षिण पश्चिम मानसून या गर्मी का मानसून कहा जाता है। इन हवाओं से व्यापारियों को नौकायन में सहायता मिलती थी। इसलिए इन्हें व्यापारिक हवाएं या ट्रेड विंड भी कहा जाता है। एक और रोचक बात, पुराने जमाने में नावों में इंजन नहीं होते थे और वे मानसूनी हवाओं के सहारे चलती थीं। आज इंजन वाली नौकाएं एवं जहाज आ गए हैं। लेकिन ट्रेड विंड आज भी यात्रा में कारगर हैं। यदि विंड पैटर्न के हिसाब से कोई जहाज चल रहा है तो वह कम ईंधन खर्च करके ज्यादा गति से चल सकता है।
मानसून के बारे में रोचक तथ्य
- केरल में मानसून जून के शुरू में दस्तक देता है और अक्टूबर तक करीब पांच महीने रहता है, जबकि राजस्थान में सिर्फ डेढ़ महीने ही मानसूनी बारिश होती है। वहीं से मानसून की विदाई होती है।
- यदि हिमालय पर्वत नहीं होता तो उत्तर भारत के मैदानी इलाके मानसून से वंचित रह जाते। मानसूनी हवाएं बंगाल की खाड़ी से आगे बढ़ती हैं और हिमालय से टकराकर वापस लौटते हुए उत्तर भारत के मैदानी इलाकों को भिगोती हैं।
- हिन्द महासागर में उत्पन्न होता है और मई के दूसरे सप्ताह में बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान निकोबार द्वीपों में मानसून दस्तक देता है। एक जून को केरल में आगमन होता है।
- देश में मानसून के चार महीनों में 89 सेटीमीटर औसत बारिश होती है। 80 फीसदी बारिश मानसून के चार महीनों जून-सितंबर के दौरान होती है।
- देश की 65 फीसदी खेती-बाड़ी मानसूनी बारिश पर निर्भर है। बिजली उत्पादन, भूजल का पुनर्भरण, नदियों का पानी भी मानसून पर निर्भर है।
- पश्चिम तट और पूर्वोत्तर के राज्यों में 200 से एक हजार सेमी बारिश होती है जबकि राजस्थान और तमिलनाडु के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहां मानसूनी बारिश सिर्फ 10-15 सेमी बारिश होती है।