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गैरसैंण सत्र : रीते ही रह गए पहाड़ियों के हाथ

दिगपाल गुसाईं

सीमांत जनपद चमोली के गैरसैंण में विधानसभा सत्र आयोजित करने को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता हो हल्ला मचा रहे थे, मानों इनको पहाड़ की उपेक्षित जनता की भारी चिंता हो, लेकिन मात्र चार दिनों तक चले सत्र में पहाड़ की जनता को क्या मिला यह यक्ष प्रश्न सबको दुखित कर रहा है।

लम्बे संघर्ष के बाद अलग राज्य बने 23 साल बीतने को हैं लेकिन जिस अवधारणा को लेकर क्षेत्र की जनता ने अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन में बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया, कई ने अपने प्राणों की आहुति दी, अपनी अस्मिता दांव पर लगाई लेकिन उनका सपना आज तक साकार होता नहीं दिखाई दे रहा है। पहाड़ की जनता लंबे समय से बंदरों, जंगली जानवरों, आवारा जानवरों, स्वास्थ्य सुविधा, सिंचाई, उच्च शिक्षा के लिए तरसती आ रही है। पहाड़ का कास्तकार हाड़ तोड़ मेहनत कर फसलें उगाता है लेकिन प्रतिफल मिलने से पहले बंदर व आवारा जानवर उनकी मेहनत पर पानी फेर देते हैं।

यह बात क्या किसी से छिपी है कि पहाड़ों में आए दिन सुनने को मिलता कि हार्ट अटैक से मौत हो गई है। इस गंभीर बीमारी के लिए अभी तक पहाड़ों में सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाई है। यही हाल सिंचाई व्यवस्था का भी है। वर्षों से तमाम नहरें क्षतिग्रस्त अवस्था में हैं। लिफ्ट सिंचाई योजनाओं का खराब रहना आम बात हो गई है। उनकी सुध लेना सरकार को फिजूलखर्ची लगता है। इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए पहाड़ में अगर संस्थान खोले भी गए तो उनमें या तो शिक्षकों की भारी कमी बनी हुई है या मनमाफिक सब्जेक्ट उपलब्ध नहीं हैं। नतीजतन युवाओं को उच्च शिक्षा के लिए भारी भरकम खर्चे पर मैदानी भागों का रुख करना पड़ता है।
दुखद पहलू यह है कि पहाड़ में आयोजित विधानसभा सत्र में किसी ने भी पहाड़ों की इन समस्याओं पर चर्चा करने की जहमत तक नहीं उठाई है। अच्छा होता कि गैरसैंण का हौवा खड़ा करने वाले माननीय पहाड़ में आयोजित सत्र में केवल पहाड़ की समस्याओं को पुरजोर ढंग से उठाते तो यहां के लोगों को कुछ राहत मिलती, लेकिन कुल मिलाकर सत्र में जो देखने को मिला उसमें जनता की समस्याएं कम राजनीति की चिंता ज्यादा देखने मिली। इसीलिए सत्र को लेकर लोगों में खास दिलचस्पी देखने को भी नहीं रही। अगर देखा जाए तो आम गरीब जनता को बजट से कोई लेना देना नहीं होता है, उसे तो दो वक्त की रोटी आसानी से मिलनी चाहिए, गंभीर बीमारी में इलाज ठीक से मिल जाना चाहिए, उसके नौनिहालों को बेहतर शिक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन ऐसा होता कम नजर आ रहा है। इन तमाम समस्याओं से आजिज आ चुकी जनता के सामने पलायन के सिवा और कुछ विकल्प नहीं बचता जिसके लिए तमाम सरकारें प्रकट तौर पर चिता तो जताती रही किंतु बुनियादी मुद्दों को छूने की जरूरत नहीं समझी गई। आज तक का अनुभव तो यही बताता है।

विडंबना यह है कि फ्री राशन ने लोगों को निठल्ला बना दिया है जिसे सरकारों ने अपना वोट पाने का असली हथियार मान लिया है। लेकिन इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, इसको सब जानते हुए भी नजरअंदाज किया जा रहा है। निसंदेह यह पहाड़ के कर्मठ लोगों के लिए शुभ संकेत भी नहीं माने जा सकता है। गैरसैंण में बजट पास कर सरकार ने अपनी पीठ थपथपाई तो विपक्ष ने भी खुद को जनता के हितों का रक्षक दिखाने का भरपूर इवेंट किया लेकिन पहाड़ियों के हाथ खाली ही रह गए हैं। बजट में धनराशि का इंतजाम तो पिछले सवा दो दशक से होता आ रहा है लेकिन पहाड़ की दशा क्यों नहीं सुधरी, यह सवाल सबसे जवाब मांग रहा है।

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