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शंकराचार्य की सांसारिकता बिल्कुल भगवान शंकर से मिलती जुलती

-गोविंद प्रसाद बहुगुणा –

शंकराचार्य जी की सांसारिकता का इससे सुन्दर रूप क्या हो सकता है कि संसार के लोग उन्हें सबसे ज्यादा पढ़ते और पसंद करते हैं I
मेरा अपना खयाल है कि शंकराचार्य जी की सांसारिकता बिल्कुल भगवान शंकर से मिलती जुलती है । शंकर जितने मोहासक्त थे उतने ही निर्लिप्त भी थे , इस तथ्य के तमाम उदाहरण धार्मिक साहित्य में भरे पड़े हैं ।
शंकर जी ने पार्वती जी से शादी की तो हमारा समाज उनको आदर्श दम्पति मानता आया है , उनको श्रद्धा और विश्वास की संगति के रूप में पूजता आ रहा है ।
अपने -अपने अनुभवों और अध्ययन के मुताबिक विद्वानों, ऋषि मुनियों और आचार्यों ने जीवन और जगत की परिभाषा की है , बाकी सांसारिक लोगों को जीवन के संघर्षों को झेलते हुए कभी इन बातों को सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली । लेकिन आश्रम व्यवस्था को follow करने वाले
गृहस्थ लोगों ने जब वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने परिवार से हटकर व्यापक संसार की समस्याओं पर सोचने के लिए समय निकाला लेकिन गृहस्थ लोगों से उनका संपर्क फिर भी बना रहा । गृहस्थ जीवन से दूरी बनाये रखने के कारण
उनके दिमाग की मशीन ज्यादा तेजी से काम करने लगी – बड़े ऋषि मुनियों ने केवल सूक्ष्म चिंतन नहीं किया बल्कि जीवन के अनुभूत सत्य को आम दुनियां के लोगों के साथ साझा किया I बहुत सारे ऋषि-मुनि वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए भी गृहस्थी ही थे । उनके विचार और अकेले रहने वाले सन्यासी के विचारों में स्वाभाविक रूप से अंतर मिलता है -उपरोक्त दोनों किस्म के विद्वानों में शंकराचार्य जी जरा अलग किस्म के चिंतक थे -उन्होंने गृहस्थ जीवन से बाहर रहते हुए भी उसका सूक्ष्म अध्ययन किया और निःसंकोच भाव से उसका प्रकाशन भी किया इसलिए शंकराचार्य जी की जितनी भी रचनाएँ हैं वे लोगों द्वारा सर्वाधिक पठित हैं I
शंकराचार्य जी की इस प्रस्तावना पर यदि हम गंभीरतापूर्वक विचार करें तो मुझे लगता है कि ब्रह्म एक ऐसी प्रतीति है जिसका दूसरा नाम व्यापकता है , उसके मुकाबले जीव सिर्फ एक कण है ।
श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुउक्तं ग्रन्थकोटिभिः I
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः II
शंकराचार्य जी नै अनेक महत्वपूर्ण उपनिषदों, जैसे- ऐतरेय, ईश केन, छान्दोग्य मुण्डक, माण्डुक्य, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, श्वेताश्वतर आदि पर भाष्य लिखे। ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने लगभग दो सौ ग्रन्थों की रचना की थी- जिनमें से अनेक ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। लेकिन जितना कुछ हमें उनके उपलब्ध साहित्य में पढ़ने को मिला उसने सामान्य पढ़े लिखे जनमानस को बहुत प्रभावित किया ,उनके द्वारा रचित श्लोकों में जो संगीत है वह आकर्षित करता है ऐसा ही संगीत मुझे तुलसीदास जी द्वारा रचित स्तुतियों में सुनाई देता है -पुराने शास्त्रीय संगीतकार जैसे पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ,बी डी पलुस्कर , सुब्बू लक्ष्मी ,लता मंगेशकर ,भीमसेन जोशी आदि ने बड़ी तन्मयता से उनके श्लोकों और भजनों का गायन किया है ….

शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि
प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ॥ १॥.

सरस्वत्या लक्ष्म्या विधिहरिसपत्नो विहरते
रतेः पातिव्रत्यं शिथिलयति रम्येण वपुषा ।
चिरं जीवन्‍नेव क्षपित पशुपाशव्यतिकरः
परानन्दाभिख्यं रसयतिरसंत्वद्भजनवान् ॥१०१॥-सौंदर्य लहरी
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