शब्दयात्री-88 : ओएमजी! फिनमिन पीएमओ गए हैं!
–डाॅ. सुशील उपाध्याय
ओएमजी, फोमो, जीजी, सीसी, बीसीसी, बीएफ, जीएफ, डीएम, पीएम, ओटीटी…….आप जानते हैं कि ये किस भाषा के शब्द हैं! ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, ये हमारी ही भाषा के शब्द हैं, जिन्हें नई पीढ़ी इतने धुआंधार तरीके से इस्तेमाल में ला रही है कि शब्द और अर्थ के बीच के ‘यादृच्छिक संबंध’ का निर्धारण ही कठिन होता दिख रहा है। पूरे-पूरे वाक्यों के लिए महज एक शब्द बोला जा रहा है और न केवल बोला जा रहा है, बल्कि समझा भी जा रहा है। चूंकि, भाषा का मूल काम संप्रेषण ही है इसलिए जब इन संक्षेपाक्षर यानी एब्रीवीएशन के जरिये संप्रेषण सध रहा है तो फिर भाषा की फिक्र करना गैर जरूरी बात लगने लगेगी। विगत दो-तीन दशकों में जितनी तेजी से प्रौद्योगिकी का विकास हुआ है, उसे देखकर आशंका जताई जाती रही है कि आने वाले समय में इंसान हाथ से लिखना भूल जाएगा। लेकिन, अब बात इससे भी आगे बढ़ी हुई दिख रहा है। नई आशंका यह है कि इंसान भाषा का मानक प्रयोग और व्याकरण, सब कुछ भूल जाएगा! वैसे, भाषा एक सीमा तक ही व्याकरण का बंधन मानती है। सभी भाषाओं के प्रयोक्ताओं की मूल प्रवृत्ति कठिनता से सरलता और विस्तार से संक्षेपीकरण की ओर होती है। मुख-सुख भी एक बड़ी वजह होती है। बदलाव की इस प्रक्रिया में इतना कुछ घटित होता रहता है कि उसके सामने व्याकरण के नियम कमजोर दिखने लगते हैं।
इसके ताजा उदारण उन संक्षिप्त शब्दों में देख सकते हैं, जिनका प्रयोग दिन-ब-दिन बढ़ रहा है और दैनिक व्यवहार का हिस्सा बन रहा है। इस लेख में उदाहरण के तौर पर लिए गए शब्दों को इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न प्रकार के कंटेेंट से छांटा गया है। इनके अलावा भी ऐसे सैकड़ों शब्द हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों में प्रयोग में जाए जा रहे हैं। भले ही इस वक्त इन्हें स्वीकारने में सहजता न हो, लेकिन ये सब समय के साथ वैसे ही हो जाएंगे, जैसे कि एसएमएस, एफबी (फेसबुक), एमएमएस, डीओबी (डेट ऑफ बर्थ) हो गए हैं। और ऐसा भी मत मानिये कि इन शब्दों के प्रयोग के लिए केवल प्रौद्योगिकी का विकास ही जिम्मेदार है। जो लोग सरकारी नौकरी करते हैं, वे छुट्टियों के लिए प्रयोग होने वाले शब्दों सीएल, एमएल, ओडी, ओटी, एसएल, एससीएल और डीएल आदि को अच्छी तरह समझते हैं और इनका खूब प्रयोग भी करते हैं। जैसे ही काम का क्षेत्र बदलता है तो संक्षेपाक्षर के अर्थ भी अलग हो जाते हैं, जैसे कार्यालय में डीएल का अर्थ ड्यूटी लीव है, जबकि यातायात पुलिस के लिए ड्राइविंग लाइसेंस है। इसी प्रकार राजनीतिक शब्दावली में पीएम प्रधानमंत्री हैं, जबकि मेडिकल में पोस्टमार्टम। सोशल मीडिया के संदर्भ में पीएम का विस्तार प्राइवेट मैसेज है। ऐसे ही प्रशासन में डीएम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट हैं, लेकिन टेक्स्ट मैसेज में डायरेक्ट मैसेज है।
संक्षेपीकरण वाली नई भाषा कई तरह के भ्रम भी पैदा करती है, जिन्हें अभ्यास या व्यवहार से ही समझा जा सकता है। मसलन, आप बीसी को ईस्वी पूर्व न समझिएगा, नई बीसी का अर्थ बिकॉज है। बीएफ यानी ब्लू फिल्म अब नया अर्थ ग्रहण करते हुए ब्यायफ्रेंड हो चुका है। गर्ल फ्रेंड को जीएफ कहने से ही काम चल जा रहा है। आई लव यू हिंदी फिल्मों में बहुत पहले ईलू-ईलू हो गया था, नए जमाने के प्रेमी टेक्स्ट में आईएलयू से काम चला रहे हैं। ‘जिंदगी एक बार मिलती है’, जैसे वाक्य के लिए योलो यानी वाईओएलओ चलन में आ गया है। आम्र्ड फोर्सेज के लोग भले ही एलएमजी को ’लाइट मशीन गन’ समझते हों, लेकिन ये नई पीढ़ी के लिए ‘लेट मी गूगल’ है। इसी तरह एनपी नाॅर्थ प्राॅविन्स की बजाय नो प्राॅब्लम में बदल चुका है। आईजी भी अब इंस्पैक्टर जनरल की बजाय सोशल मीडिया का इंस्टाग्राम बन गया है।
बनने और बिगड़ने का सिलसिला आने वाले दिनों में और गति पकड़ेगा क्योंकि इसकी जड़े जिंदगी की आपाधापी में जमी हुई हैं। जब हर चीज इंस्टैंट रूप धारण कर रही है तो भाषा इससे ज्यादा दिन मुक्त नहीं रह सकती है। जिंदगी इतनी तेजी से भाग रही है कि अब हैप्पी बर्थडे भी एचबीडी में परिवर्तित गया है। गोट्टा, गोन्ना, गाईज तो हर चौथे मुंह से सुनाई दे रहे हैं। बीते सालों में टू जी, थ्री जी, फोर जी, फाइव जी को देखते हुए अब आगे कितने भी ‘जी’ आ जाएं, बोलने वालों को कभी पता नहीं चलेगा कि ये शब्द कहां से आए, क्यों आए और क्या उनकी अपनी भाषा में इनके लिए कोई शब्द मौजूद था! कोरोना के दौर में डब्ल्यूएफएच यानी वर्क फ्राॅम होम भी लोगों की जिंदगी में घुस चुका है। अपने आसपास कान लगाकर सुनिये तो नो बिग डील को एनबीडी, एक के साथ एक फ्री को बोगो, चूमने-गले लगाने को जोजो, चिढ़ाने को जेके और मैं किसी की प्रवाह नहीं करता को आईडीसी सुना जा सकता है। रिश्ते भी पा, माॅम, ब्राॅ, सिस, डाॅक्साब, मैम, आंट में बदल गए हैं। आने वाले दिनों में और बदलेंगे क्योंकि इस प्रक्रिया को किसी बाह्य प्रयास से रोक देना या इसकी दिशा बदल देना फिलहाल संभव नहीं दिखता।
संक्षिप्ताक्षर या संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति नई पीढ़ी या आम लोगों की बोलचाल की भाषा तक ही सीमित हो ऐसा नहीं है। सरकारी भाषा में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जहां किसी शब्द, वाक्य या विस्तृत रूप का संक्षिप्त रूप इतना प्रचलन में आ गया है कि उसके मूल रूप को समझना या स्मरण रखना ही कठिन लगता है। उदाहरण के लिए आधार कार्ड, यूपीआई, डिजिलाॅकर, कोविन (विनिंग ओवर कोविड), जैम (गवर्नमेंट ई-मार्केट), आईसीटी, एडुटेक (एजुकेशनल टेक्नोलॉजी), एडुसेट (एजुकेशनल सैटेलाइट), बी2बी (बिजनेस टू बिजनेस) , बी2सी, दीक्षा (डिजिटल सर्विस फॉर नॉलेज शेयरिंग) आदि को देख सकते हैं। सरकारी कंपनियों के नाम ओएनजीसी, सेल, गेल, भेल, एनटीपीसी आदि इस प्रकार लोगों की भाषा का हिस्सा बन चुके हैं कि इनके मूल या विस्तृत रूप प्रायः प्रयोग में नहीं दिखते। शिक्षा जगत में ऐसे नामों की सूची और भी लंबी है-यूजीसी, रूसा, आईसीसीआर, आईसीपीआर, एनसीटीई, एआईसीटीई, एमसीआई, बीसीआई आदि आदि।
मीडिया ने भी ऐसे प्रयोगों को खूब बढ़ावा दिया है। टाइम्स ऑफ इंडिया फिनमिन (फाइनेंस मिनिस्टर) जैसे प्रयोग दशकों से कर रहा है। इसके साथ-साथ एडुमिन भी चलन में आ रहा है। प्रधानमंत्री कार्यालय न जाने कब से पीएमओ बन चुका है। मुख्यमंत्री कार्यालय के लिए सीएमओ भी प्रचलन में आया है। हालांकि, सीएमओ पर चीफ मेडिकल ऑफिसर पहले ही दावा किए हुए हैं। घर के भीतर टीवी, एलईडी, फ्रिज, बाइक, कार, ब्रश जैसे संक्षेपाक्षर पहले से ही घुसे हुए हैं। नगरीकरण ने भी ऐसे शब्दों को बढ़ावा दिया और उनके अर्थ भी बदले हैं। जैसे, अब रेड लाइन या ग्रीन लाइन का अर्थ मेट्रो ट्रेन से जुड़ गया है। और मेट्रो ने ट्रेन को किनारे करके खुद ही पूरा अर्थ धारण कर लिया है। रेलवे स्टेशन दशकों पहले स्टेशन में परिवर्तित हो चुका है। रेलवे के उ रे, प रे, द रे, द पू रे, उ पू रे और भी रोचक लगते हैं हालांकि ये कभी सामान्य प्रयोग में नहीं आ सके।
–डाॅ. सुशील उपाध्याय
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