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आखिर क्यों चाहते हैं मंत्री अफसरों की चरित्र पंजिका ( ACR) लिखना ?

जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड के कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज ने एक बार फिर मंत्रियों को विभागीय सचिवों और अपर सचिवों सहित आला आला अफसरों की वार्षिक गोपनीय आख्या(एसीआर) लिखने का अधिकार देने की मांग उठा दी है। इससे पहले सतपाल महारा मार्च 2022 में तथा उससे भी पहले यह मांग मुख्यमंत्री से उठा चुक हैं। उनकी मांग पर अप्रैल 2022 में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस मांग की व्यवहार्यता पर विचार करने के लिये मुख्य सचिव को कमेटी के गठन करने के निर्देश दिये थे। जिसका आज तक पता नहीं चला। वर्तमान में एसीआर लिखने का अंतिम अधिकार मुख्यमंत्री के पास है और प्रदेश के राजनीतिक हालात को देखते हुये शायद ही मुख्यमंत्री यह अधिकार मंत्रियों को देंगे। अगर सचमुच ऐसा हो गया तो मुख्यमंत्री कमजोर और मंत्री ताकतवर हो जायेंगे तथा नौकरशाही का नियंत्रण मुख्यमंत्री के हाथ से फिसलकर मंत्रियों के हाथ आ जायेगा। यही नहीं अनाड़ी हाथों में शक्तियों के दुरुपयोग का खतरा भी बना रहेगा जिससे शासन प्रशासन में सुधार के बजाय विसंगतियां उत्पन्न हो सकती है। इसीलिये भारत में मुख्यमंत्री सामान्यतः कार्मिक और गृह विभाग अपने ही पास रखते हैं।

तीन हाथों से गुजरती है अफसर की गोपनीय रिपोर्ट

ऐसा नहीं लगता कि सतपाल महाराज की पहल पर उत्तराखण्ड के मंत्री केवल अफसरांे की एसीआर लिखने का अधिकार मांग रहे हों। वे अखिल भारतीय सेवाओं के आइएएस, आइपीएस और आइएफएस पर नकैल कसना चाहते हैं ताकि वे हुक्म के गुलाम बने रहें। लेकिन उन्हें अगर केवल एसीआर लिखने का अधिकार मिलता है तो इससे उनकी मंशा पूरी नहीं होती। क्योंकि अखिल भारतीय सेवाओं के लिए वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) लिखने की वर्तमान प्रणाली, अखिल भारतीय सेवाओं (गोपनीय रोल) नियम 1970 द्वारा शासित है। इस नियम के अनुसार किसी कार्मिक की गोपनीय रिपोर्ट में उसके काम के प्रदर्शन, चरित्र, आचरण और गुणों आदि का आंकलन किया जाता है। नियमानुसार एसीआर तीन स्तरों से गुजरती है। इसमें प्रत्येक कलेण्डर वर्ष में कार्मिक के कार्यों का पर्यवेक्षण करने वाला अधिकारी केन्द्र सरकार द्वारा तय परफार्मा पर रिपोर्ट लिखता है जिसकी समीक्षा उससे वरिष्ठ रिव्यूविंग अधिकारी करता है और उसके बाद उस रिपोर्ट पर अंतिम निर्णय स्वीकार करने वाला प्रधिकारी लेता है, जो कि मुख्यमंत्री होता है। यद्यपि रिपोर्ट गोपनीय होती है मगर प्रतिकूल प्रवृष्टि होने पर संबंधित कार्मिक को सूचित कर दिया जाता है ताकि वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर अपना पक्ष रख सके।

आखिर चाहते क्या हैं धामी के मंत्री ?

इस तरह देखा जाय तो मंत्री को केवल लिखने का अधिकार मिलने से उसे कोई लाभ नहीं होने वाला। क्योंकि अगर मंत्री ने किसी नौकरशाह की रिपोर्ट लिख भी दी तो उसकी समीक्षा का भी प्रावधान है। अगर समीक्षा प्राधिकारी ने रिपोर्ट में बदलाव नहीं किया तो अंतिम निर्णय एक्सेप्टिंग अथारिटी को लेना होता है जो कि मुख्यमंत्री ही होता है। अगर मंत्री किसी सचिव की एसीआर पर प्रतिकुल प्रवृष्टि देता है तो उसे समीक्षा अधिकारी बदल सकता है और फिर अंतिम चरण में रिपार्ट की प्रवृष्टि अस्वीकार की जा सकती है। इसलिये मंत्रियों की मांग स्पष्ट होनी चाहिये कि वे गोपनीय चरित्र पंजिका के किस भाग में जुड़ना चाहते हैं। अगर वे रिपोर्टिंग या रिव्यूविंग चरण में जुड़ना चहते हैं तो इससे उनका उद्ेश्य पूरा नहीं होता और अगर अंतिम या निर्णायक चरण को अपने हाथ में लेना चाहते हैं तो कोई भी मुख्यमंत्री अपने हाथ काट कर अपनी शक्तियों को खैरात की तरह नहीं बांटा करता।

वर्तमान व्यवस्था ऐसी है

वर्तमान में जिलों में अधीनस्थ अधिकारियों की एसीआर जिला अधिकारी लिखता है और जिलाधिकारी की एसीआर मण्डलीय कमिश्नर लिखता है। यह रिपोर्ट गृह या कार्मिक विभाग से रिव्यूविंग अधिकारी मुख्य सचिव के पास जाती है जो कि समीक्षा के बाद अंतिम निर्णय के लिये मुख्यमंत्री को रिपोर्ट भेज देता है। इसी प्रकार सचिवालय में बैठे नौकरशाहों की एसीआर उनके वरिष्ठ अधिकारी लिखते हैं जो कि मुख्य सचिव के पास रिव्यू के लिये जाती है और उस पर भी फैसला मुख्यमंत्री करता है। इसी तरह पुलिस विभाग में भी वरिष्ठताक्रम के अनुसार एसीआर लिखी जाती है जो कि पुलिस महानिदेशक के माध्यम से गृह या गोपन विभाग में आती है और उस पर भी अंतिम निर्णय मुख्यमंत्री का ही होता है। यही वजह है कि विभागों या मंत्रालयों के बंटवारे में मुख्यमंत्री सामान्यतः कार्मिक/गोपन और गृह विभाग अपने ही पास रखता है। वास्तव में नौकरशाही सरकार का अति महत्वपूर्ण अभिन्न अंग होती है जिसके बिना शासन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिये कोई भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री नौकरशाही पर अपना नियंत्रण कम या समाप्त नहीं करता। अगर ऐसा हुआ तो जिस प्रकार मंत्री और विधायक अपने काम कराने मुख्यमंत्री के पास जाते हैं उसी तरह मुख्यमंत्री को अपनी प्राथमिकता के काम कराने मंत्रियों के पास जाना पड़ेगा।

अनाड़ी हाथों में हथियार खतरनाक हो सकता है !

दरअसल यह मांग ही अव्यवहारिक है। राज्य गठन के समय प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता और उनकी मनोदशा का पूर्वानुमान कर डा0 आरएस टोलिया ने नौकरशाही का ढांचा इस तरह तैयार किया था ताकि कोई नेता नियमों की जानकारी के अभाव में अफसरशाही पर नाजायज दबाव न डाल सके। इसी ढांचे के कारण आज एक सचिव या अपर सचिव एक से अधिक मंत्रियों के साथ हैं मगर एक मंत्री के पास एक ही सचिव नहीं है। अगर इतने मंत्री एक साथ एक ही सचिव या अपर सचिव की भांति-भांति की गोपनीय प्रवृष्टि लिखने लगेंगे तो नौकरशाही चरमरा जायेगी। दूसरी व्यवहारिक समस्या अफसरों के जल्दी-जल्दी या बार-बार विभाग बदलने की है। नौकरशाही को तास के पत्तों की तरह फेंटा जाता है। मंत्री चाहे या न चाहे उसके साथ काम करने वाले सचिवालय अधिकारी का विभाग बदल जाता है। त्रिवेन्द्र सरकार में सतपाल महाराज स्वयं इस व्यवस्था के भुक्तभोगी रह चुके हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि जब कोई सचिव किसी मंत्री की तानाशाही या अशिष्ट व्यवहार के कारण उसके साथ काम करना ही नहीं चाहता। पिछली सरकार में कुछ सचिवों ने कैबिनेट मंत्री रेखा आर्य के साथ काम करने से साफ इंकार कर दिया था। जिस कारण उनके विभाग का कामकाज बुरी तरह प्रभावित रहा। अगर ऐसे मंत्रियों को एससीआर की अमोघ शक्ति दे दी गयी तो अंजाम की कल्पना की जा सकती है।

नौकरशाही केवल उत्तराखण्ड में बेलगाम नहीं

नौकरशाही के बेलगाम होने की शिकायत केवल उत्तराखण्ड में नहीं बल्कि सारे देश में है। उत्तराखण्ड में तो यह शिकायत नित्यानन्द स्वामी से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तक चलती आ रही है। इसका मुख्य कारण नौकरशाही का अहंकार तो है ही क्योंकि मंत्री या निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में सत्ता एक कार्यकाल में अधिकतम् 5 साल के लिये होती है जबकि नौकरशाही सरकार का स्थाई अंग होता है। उनके हाथ में कार्यकारी शक्तियां होती हैं जो कि नियमों और कानूनों से निर्देशित होती है। अहंकार का बड़ा कारण नौकरशाहों का नेताओं से कहीं अधिक शिक्षित और प्रशिक्षित होने के साथ ही नियमों और विषय का विशेषज्ञ होना होता है जबकि मंत्री के लिये कोई शैक्षिक योग्यता नहीं होती। चुनाव में दसवीं पास नेता एक प्रोफेसर को हरा देता है और सेना से भागा हुआ सिपाही एक जनरल को हरा देता है। आइएएस, आइपीएस या पीसीएस बनने के लिये बहुत ही कठिन मेहनत और कुशाग्र बुद्धि की जरूरत होती है जबकि चुनाव योग्यता के बल पर नहीं बल्कि प्रोपेगण्डा के बल पर जीते जाते हैं। जैसे मुस्लिम यूनिवर्सिटी का प्रोपेगण्डा कैसे कैसों को चुनावी वैतरणी पार लगा देता है। जाति और धर्म के आगे कोई योग्यता नहीं टिकती है। इसलिये मंत्रियों को एसीआर की किसी भी स्तर की जिम्मेदारी सौंपना तर्क संगत नहीं लगता।

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