निकाय चुनाव तक बना रहेगा उत्तराखंड कांग्रेस का जज्बा?
—दिनेश शास्त्री–
भाजपा के लिए दक्षिण का प्रवेश द्वार कहलाने वाले कर्नाटक से गाए गए “विदाई गीत” का प्रकरण संपन्न हो गया है लेकिन इसकी प्रतिध्वनि उत्तराखंड में सुनाई दे रही है। भाजपा के चुनाव प्रबंधन में यहां से भी नेताओं को भेजा गया था, लेकिन वे अपना सा मुंह लेकर लौटे हैं। इसके विपरीत यहां प्रदेश कांग्रेस उत्साह से इस कदर लबरेज है, मानो यही लोग किला फतह कर लौटे हों। और हो भी क्यों नहीं? चारों खाने चित पड़ी पार्टी को दक्षिण के किले की जीत से निसंदेह संजीवनी सी मिली है।
उत्तराखंड में खांचों में बंटी कांग्रेस अगर सचमुच एकजुट हुई तो यह सत्तारूढ़ भाजपा के लिए चुनौती हो सकती है। वैसे भी कर्नाटक की पराजय के बाद भाजपा असहज दिख रही है। बेशक प्रकट रूप में नेता यह दिखाने की कोशिश करें कि यह कोई अप्रत्याशित बात नहीं है, किंतु सच तो यह है कि प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और पार्टी अध्यक्ष की ताबड़तोड़ रैलियों के साथ ही तमाम संसाधन झोंकने के बावजूद भाजपा की प्रतिष्ठा नहीं बच पाई तो पार्टी का मनोबल स्वाभाविक रूप से गिरा है। चिड़िया के खेत चुग जाने के बाद अब उसके पास सिर पकड़ कर अफसोस जताने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।
इधर उत्तराखंड में कांग्रेस ताल ठोक कर उठ खड़ी हुई है। प्रदेश में अगले छह माह के भीतर निकाय चुनाव होने हैं। यह चुनाव लोकसभा चुनाव का रिहर्सल होगा ही साथ ही कांग्रेस के लिए अपना जनाधार बटोरने का मौका भी।
निश्चित रूप से कर्नाटक प्रकरण के बाद कांग्रेस को नई ऊर्जा मिली है। आप अनुमान लगा सकते हैं कि यदि चुनाव का नतीजा पार्टी के विपरीत होता तो क्या कांग्रेस नेता सिर उठा कर बात करने की स्थिति में होते? जवाब है – नहीं। बेशक यहां के कांग्रेस नेताओं का कर्नाटक विजय में कोई योगदान नहीं है और भिन्न भाषा, संस्कृति, खानपान के चलते उनका योगदान हो भी नहीं सकता था। कर्नाटक का नतीजा वहां की जनता की चेतना, जागरूकता और अस्मिता बोध की परिणति है लेकिन पार्टी की इस एक अदद जीत ने पूरे देश को नया संदेश तो दिया ही है। यही संदेश कांग्रेस को देशभर में उत्साह से लबरेज करता दिख रहा है। पार्टी के लोग इस जज्बे को कब तक बनाए रखेंगे, यह कहना मुश्किल है। कारण यह कि किसी भी चुनाव में कांग्रेस अक्सर अपने ही आंतरिक कारणों से शिकस्त खाती रही है, उसकी वजह नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा हो सकती है। इस मुद्दे पर फिर कभी बात करेंगे। आज बात करें प्रदेश में आसन्न निकाय चुनाव की। यदि सब कुछ ठीक रहा तो कांग्रेस मुकाबले को एकतरफा होने से रोक कर आमने सामने की लड़ाई में बदल सकती है। सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यही चिंता का सबब भी है। लोकसभा चुनाव से पहले निकाय चुनाव एक तरह से भाजपा के लिए भी लिटमस टेस्ट की तरह हो सकता है। जाहिर है भाजपा सरकार के कामकाज पर यह एक जनादेश भी होगा, इसलिए भाजपा के सामने चुनौती बड़ी है जबकि कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, उसे तो केवल पाना ही है। यह उसकी एकजुटता पर निर्भर करता है। प्रदेश के हर कोने में कांग्रेस उठ खड़ी हुई है तो यह उसके नेताओं की लोकप्रियता का पैमाना नहीं बल्कि लोगों के रुझान का सूचक है। देखना यह है कि कांग्रेस इस रुझान को वोटों में बदल सकेगी या नहीं?