धूल के बर्ताव के नए मॉडलों से सूर्य जैसे नक्षत्रों के अंतिम चरण का आंकलन बेहतर तरीके से किया जा सकेगा
कवलूर स्थित वेणु बप्पू वेधशाला से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर ग्रहीय नीहारिका नामक एक प्रकार के खगोलीय पिंड की तापीय और आयनीकरण संरचना का सावधानीपूर्वक प्रतिरूपण किया गया। खगोलविदों को हाइड्रोजन की कमी वाले इन नक्षत्रों के निर्माण और विकास के बारे में बेहतर जानकारी प्राप्त करने में मदद मिल रही है।
ग्रहीय नीहारिकाएँ गैस और धूल के गोले हैं जो हमारे सूर्य जैसे ग्रहों से तब निकलते हैं जब वे अपने कोर में हाइड्रोजन और हीलियम ईंधन को खत्म करते हैं – ऐसा कुछ जो हमारे अपने सूर्य द्वारा आज से 5 अरब वर्ष बाद किये जाने की संभावना है। जैसे-जैसे परमाणु ऊर्जा उत्पादन की कमी के कारण तारकीय कोर कम होता है तो तब यह अधिक गर्म होता जाता है और दूर-पराबैंगनी में अधिक तीव्रता से विकिरण करता है। एक सदी से भी अधिक समय पहले जब खगोलविदों ने छोटी दूरबीनों से देखा तो यह ग्रहों जैसा दिखता था।
अपने अस्तित्व के इस पुराने चरण में अधिकांश तारे छोटे अवशिष्ट हाइड्रोजन आवरण के साथ कोर (केंद्रीय तारे) तैयार करते हैं हैं, उनमें से लगभग 25% में हाइड्रोजन की कमी दिखाई देती है, लेकिन उनकी सतह पर हीलियम प्रचुर मात्रा में होता है। उनमें से एक उपसमूह आयनित हीलियम, कार्बन और ऑक्सीजन की मजबूत द्रव्यमान-हानि और उत्सर्जन रेखाएँ भी प्रदर्शित कर सकता है जिन्हें तकनीकी रूप से वुल्फ-रेयेट (WR) के रूप में वर्णित किया गया है।
ग्रहीय नेबुला (निहारिका) पीएन आईसी 2003 उन दुर्लभ ग्रहीय नेबुलाओं में से एक है, जिसमें वुल्फ रेयेट प्रकार का हाइड्रोजन-कमी वाला बचा हुआ केन्द्रीय अवशेष तारा है।
जबकि ग्रहीय नीहारिकाओं के सामान्य केंद्रीय तारों की विकासात्मक स्थिति को यथोचित रूप से अच्छी तरह से समझा जाता है किकैसे और कब एक केंद्रीय तारा हाइड्रोजन-विहीन हो सकता है। अभी तक इसके बारे में जानकारी नहीं मिली है। ऐसी वस्तुओं के निर्माण और विकास को नियंत्रित करने वाली प्रक्रियाएं उनके आसपास की ग्रहीय नीहारिका गैस में विद्यमान रहती हैं। इसलिए उनकी भौतिक और रासायनिक संरचनाओं का विस्तार से अध्ययन करना जरूरी है।
इस समस्या को बेहतर ढंग से समझने के लिए, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के स्वायत्त संस्थान, भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (आईआईए) के खगोलविदों ने आईसी 2003 का अवलोकन किया गया। आईआईए द्वारा संचालित तमिलनाडु के कवलूर में वेणु बप्पू वेधशाला में 2.3 मीटर वेणु बाप्पू वेधशाला से जुड़े ऑप्टिकल मीडियम-रिजॉल्यूशन स्पेक्ट्रोग्राफ (ओएमआर) का उपयोग करके किया।
मुख्य लेखक और पीएचडी छात्र के. खुशबू ने कहा, “हमने इस अध्ययन के लिए आईयूई उपग्रह से पराबैंगनी स्पेक्ट्रा और आईआरएएस उपग्रह से उनके संग्रह से ब्रॉडबैंड अवरक्त प्रवाह का भी उपयोग किया।” इन सभी अवलोकनों से नेबुला की तापीय संरचना को निर्धारित करने में गैस और धूल के सापेक्ष महत्व को सटीक रूप से रेखांकित किया जा सकता है। इससे उन्हें सटीक केंद्रीय तारा पैरामीटर प्राप्त करने में मदद मिली, जो इस वस्तु की उत्पत्ति को समझाने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
खगोलविदों द्वारा उपयोग किए गए मॉडल से यह बात सामने आई कि नेबुला और आयनीकरण स्रोत (द्रव्यमान और तापमान) के व्युत्पन्न पैरामीटर धूल-मुक्त मॉडल द्वारा प्राप्त किए गए मापदंडों से काफी अलग थे।
अध्ययन के पर्यवेक्षक और सह-लेखक प्रो. सी. मुथुमरियाप्पन ने कहा, “यह अध्ययन आयनित गैस के तापीय संतुलन में धूल के कणों के महत्व को उजागर करता है और यह खगोलीय नेबुला से जुड़े आयनित गैस के साथ आमतौर पर देखी जाने वाली प्रचुरता विसंगतियों को हल करने में आवश्यक बड़े तापमान में हुए बदलाव की उत्पत्ति की व्याख्या करता है।” उन्होंने कहा, “हमने पराबैंगनी, ऑप्टिकल और अवरक्त अवलोकनों से डेटा का अनुकरण करने के लिए एक आयामी धूल भरे फोटो-आयनीकरण कोड CLOUDY17.3 का उपयोग किया गया।”
नेबुला में सटीक कणों के आकार वितरण भी हासिल किया गया था, और कणों के फोटो-इलेक्ट्रिक हीटिंग का उचित प्रतिपादन तापमान परिवर्तन को समझाने के लिए बेहद अहम साबित हुआ। उन्होंने इस अध्ययन से चमक, तापमान और केंद्रीय तारे के द्रव्यमान के सटीक मान भी निकाले। प्रारंभिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का 3.26 गुना निकला, जो एक उच्च द्रव्यमान वाले नक्षत्र का सुझाव देता है।