समान नागरिक संहिता: कन्धा धामी का और निशाना मुस्लिम पर्सनल लॉ लेकिन लक्ष्य 2024 का चुनाव जीतना

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-जयसिंह रावत

उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हाल ही में सम्पन्न विधानसभा के चुनाव में जब राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की तो लग रहा था कि उन्होंने संविधान के अल्पज्ञान के चलते मतदाताओं को रिझाने के लिये यह घोषणा कर डाली। लेकिन चुनाव के बाद भाजपा शाषित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जब एक के बाद एक यही राग अलापना शुरू किया तो अब लग रहा है कि यह घोषणा संविधान के बारे में भाजपाई मुख्यमंत्रियों का अल्पज्ञान नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के कन्द्रीय नेतृत्व की एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा ही है जो कि 2024 के आम चुनाव के लिये तैयार की गयी है। चूंकि यह काम केवल संसद ही कर सकती है फिर भी धामी राज्य में समान नागरिक संहिता का राग अलापते जा रहे हैं और उनकी देखादेखी अन्य मुख्यमंत्री भी कर रहे हैं। इसलिये जाहिर है कि माहौल बनाने के लिये इन मुख्यमंत्रियों से यह राग अलापवाया जा रहा है। मोदी सरकार के कार्यकाल में धारा 370 भी हट गयी और राम मंदिर का निर्माण भी शुरू हो गया। बीच में नगारिकता कानून से भी हिन्दू जनमानस को उद्वेलित किया गया और अब मुसलमानों के मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) की मरम्मत की बारी है जो कि अगल आम चुनाव की बैतरिणी पार लगायेगा।

Hindu Marriage Act 1955

अगला चुनाव समान नागरिक संहिता पर लड़ा जायेगा

भारत की सत्ता में पूरी तरह जड़ जमाने के बाद मोदी-शाह द्वय ने जनसंघ से लेकर भाजपा तक के मूल मुद्दों में शामिल धारा 370 हटा दी। अदालत से ही सही मगर राम मंदिर का निर्माण भी शुरू करा दिया। इस बीच तीन तलाक और नागरिकता कानून भी पास करा दिये। इसलिये मोदी सरकार के पास अब भाजपा का समान नागरिक संहिता के अलावा कोई अन्य प्रमुख मुद्दा शेष नहीं रह गया है। इसलिये लगता है कि जिस तरह जवाहर लाल नेहरू ने 1951-52 का आम चुनाव हिन्दू नागरिक संहिता के नाम पर लड़ा था, उसी तरह नरेन्द्र मोदी भी एक देश एक कानून के नारे के साथ समान नागरिक संहिता के नाम पर अगला चुनाव लड़ना चाहते हैं। देश में महंगाई, बेरोजगारी और देश की आर्थिकी जैसे कई मुद्दे वर्तमान सरकार के खिलाफ जा सकते हैं, इसलिये इन मुद्दों को लेकर विपक्ष के इरादों को रौंदने के लिये समान नागरिक संहिता से बड़ा बुल्डोजर कोई और नहीं हो सकता। चूकि हिन्दुओं के साथ ही सिख, जैन और बौद्धों के लिये नागरिक संहिता 1955 और 1956 में ही बन चुकी है। अब केवल मुसलमानों का 1937 का पर्सनल लॉ की मरम्मत बाकी है। इसमें अन्य प्रावधानों के साथ ही मुसलमान पुरुष को 4 तक शादियां करने की छूट है। इस छूट को छीनना ही भाजपा का असली मकसद रहा है। इसी के खिलाफ देशभर में माहौल बनाया जा रहा है ताकि भाजपा हिन्दू बहुमत की एकमात्र पार्टी बनी रहे और नरेन्द्र मोदी हिन्दू हृदय सम्राट बने रहें ताकि भाजपा काग्रेस की तरह दशकों तक देश पर एकछत्र शासन करती रहे।

एक देश एक कानून भारत में अव्यवहार्य

विविधता में एकता समाये भारत में एक देश एक कानून की बात करना तो अच्छा लगता है मगर यह व्यवहारिक नहीं है। सरकार ने भले ही धारा 370 का 35 ए समाप्त कर दिया मगर अभी भी धारा 371 के विभिन्न स्वरूप मौजूद है। इसी तरह जनजातियों को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 2 की उपधारा 2 से बाहर किया गया है। अब सवाल उठता है कि अगर मुसलमानों का 1937 का वैयक्तिक कानून बदल कर हिन्दू विवाह अधिनियम के समरूप किया जाता है तो क्या सरकार जनजातियों के लिये संविधान से मिली उनकी परम्पराओं की गारंटी वापस ले सकेगी?

गोवा में 155 सालों से लागू है समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहिता के लिये अक्सर गोवा राज्य का उदाहरण दिया जाता रहा है। जबकि हकीकत यह है कि वहां यह व्यवस्था पिछले 155 सालों से लागू है। गोवा के भारत संघ में विलय के बाद भारत की संसद ने इसे जारी रखा है। यह व्यवस्था गोवा के साथ ही दमन और दियू द्वीप समूहों में भी लागू है। चूंकि गोवा 450 सालों तक पुर्तगाल का उपनिवेश रहा है और वहां लागू समान नागरिक संहिता वाला पुर्तगाली कानून सन् 1867 से ही ‘‘ द पोर्टगीज सिविल कोड 1867’’ के नाम से लागू था। भारत की आजादी के काफी समय बाद 19 दिसंबर 1961 को, भारतीय सेना ने गोवा, दमन, दीव के भारतीय संघ में विलय के लिए ऑपरेशन विजय के साथ सैन्य संचालन किया और इसके परिणाम स्वरूप गोवा, दमन और दीव भारत का एक केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना। 30 मई 1987 को इस केंद्र शासित प्रदेश को विभाजित कर गोवा भारत का पच्चीसवां राज्य बनाया गया। गोवा के अधिग्रहण के साथ ही उसके प्रशासन के लिये भारत की संसद के द्वारा ‘‘द गोवा दमन एण्ड दियू (प्रशासन) अधिनियम 1962 बना, जिसकी धारा 5 में व्यवस्था दी गयी कि वहां निर्धारित तिथि (अप्वाइंटेड डे) से पूर्व के वे सभी कानून तब तक जारी रहेंगे जब तक उन्हें सक्षम विधायिका द्वारा निरस्त या संशोधित नहीं किया जाता। प्रकार इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं रही।

सवाल धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का

वास्तव में नीति निर्देशक तत्वों के तहत एक देश एक कानून, केवल आदर्श राज्य (देश) की अवधारणा मात्र नहीं बल्कि यह समानता के मौलिक अधिकार का मामला भी है। संविधान में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक समानता के मौलिक अधिकार की विभिन्न परिस्थितियों का विवरण दिया गया हैै। इन प्रावधानों में कहा गया है कि भारत ‘राज्य’ क्षेत्र में राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल, वंश, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन इन्हीं मौलिक अधिकारों में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार भी है जिसका वर्णन अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता, धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का सामान अधिकार होगा। यह अधिकार नागरिकों एवं गैर-नागरिकों के लिये भी उपलब्ध है। देखा जाय तो नागरिक संहिता के मार्ग में धर्म की स्वतंत्रता और समानता के मौलिक अधिकारों में टकराव ही असली बाधा है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को अन्य प्राधानों के साथ मौलिक अधिकारों में विशेष बहुमत से संशोधन का अधिकार तो है मगर संविधान की मूल भावना में संशोधन का अधिकार नहीं है।

विधि आयोग ने कहा था जरूरी भी नहीं वांछित भी नहीं

अगस्त 2018 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में एक समान नागरिक संहिता आज की स्थिति में न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है। इसने यह भी कहा था कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता बहुलता के विपरीत नहीं हो सकती।’’ डा0 भीमराव अम्बेडकर ने भी संविधान निर्माण के समय कहा था कि समान नागरिक संहिता अपेक्षित है, लेकिन फिलहाल इसे विभिन्न धर्मावलंबियों की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए और उम्मीद की गई कि जब राष्ट्र एकमत हो जाएगा तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा। इसलिये इस मुद्दे को नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में रख दिया गया। भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है। हिन्दुओं के आधुनिक सिविल कोड 1955 और 56 में बन गये जिनमें जैन, सिख और बौद्ध भी शामिल किये गये हैं। अब अब इसाइयों और मुसलमानों के वैयक्तिक कानून निशाने पर हैं।

 

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