कुदरत का कहर: बहुत असुरक्षित हो गया उत्तराखण्ड में जन जीवन

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-जयसिंह रावत

मानव समूहों के लिये कभी सुरक्षित समझी जाने वाली हिमालय की गोद दिन प्रतिदिन बढ़ती दैवी आपदाओं के कारण असुरक्षित होती जा रही है। पहाड़ी क्षेत्रों में भयंकर भूकंप, भूस्खलन की संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त प्रदेश पर बाढ़, जंगल की आग, ओलावृष्टि, आकाशीय बिजली, सड़क दुर्घटना आदि आपदाओं का खतरा मंडराता रहता है। इन आपदाओं से मानव जीवन, बुनियादी ढांचे, संपत्ति और अन्य संसाधनों को भारी नुकसान पहुंचता है। मानसून तो पहाड़ी राज्यों के लिये दैवी आपदा का पर्याय बनता जा रहा है।

इस साल के मानसून सीजन में जहां झारखण्ड, मध्यप्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में बारिश सामान्य से काफी कम हुयी और सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी वहीं हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में मानसून ने कहर बरपा दिया। भारतीय मौसम विभाग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश के 36 प्रदेशों और केन्द्र शासित प्रदेशों में 1 जून से लेकर 7 सितम्बर तक केवल 43 प्रतिशत सामान्य वर्षा हुयी तो 40 प्रतिशत सामान्य से कम वर्षा हुयी। देश के 23 जिलों में अत्यंत भारी, 88 में सामान्य से अधिक भारी, 304 जिलों में सामान्य, 284 जिलों में सामान्य से कम, 15 जिलों में सामान्य से बहुत कम तथा 3 जिलों में कोई बारिस नहीं हुयी। जबकि उत्तराखण्ड के 1 जिले में अत्यन्त भारी, 5 में सामान्य से कहीं अधिक और 2 जिलों में सामान्य बारिस हुयी। हालांकि प्रदेश के 5 जिलों में सामान्य से कम वर्षा भी दर्ज हुयी। अवर्षण भी एक आपदा ही है। एक तरफ असामान्य बारिस और दूसरी तरफ भूस्खलन जैसी आपदायें सहोदर राज्य हिमाचल और उत्तराखण्ड के लिये बहुत गंभीर खतरे के सबब बने हुये हैं। आपदाओं की बढ़ती आवृति को देखते हुये यह कहना असंगत न होगा कि अपनी मुसीबत के लिये इंसान स्वयं ही ज्यादा जिम्मेदार है। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ बेतहासा छेड़छाड़ से भी आपदाएं बढ़ रही है। हिमाचल में हुये विनाश के पीछे चौड़ी सड़कों के लिये पहाड़ों को बेतहासा कटान माना जा रहा है। लेकिन ऑल वेदर रोड के नाम पर उत्तराखण्ड में जिस तरह पहाड़ों का कत्लेआम कर आपदाओं को दावत दी गयी उस पर मुख्यधारा का मीडिया भी पर्दा डालता रहा। सन् 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद फरबरी 2021 में हिमालय के अंदर धौली गंगा की बाढ़ से हमने सबक नहीं सीखा है। धंसते हुये जोशीमठ की ओर हम 1975 से आंखें मंूदे हुये थे।


उत्तराखंड विधानसभा के 5 से 8 सितम्बर तक चले सत्र के दौरान मुख्यमंत्री की ओर से एक प्रश्न के उत्तर में बताया गया कि अब तक मानसूनी आपदा से प्रदेश के कुल 45,650 परिवार प्रभावित हुये हैं जिनको 3039.72 करोड़ की मुआवजा राशि वितरित की गयी है। सरकार ने इस साल के मानसून सीजन में अब तक दैवी आपदा से 1,335 करोड़ रुपए की क्षति का आंकलन किया है। इसमें से 1000 करोड़ की प्रतिपूर्ति के लिये केन्द्र सरकार से अनुरोध किया गया है। कृषि मंत्री के अनुसार इस बार अब तक प्रदेश में 834.7371 हेक्टेअर कृषिभूमि पर फसलों को नुकसान पहुंचा तथा 7,136 काश्तकार प्रभावित हुये जिन मुआवजा बांटा गया। वित्तमंत्री प्रेमचन्द अग्रवाल के अनुसार इनके अलावा हरिद्वार जिले में अतिवृष्टि से 24,626 काश्तकार प्रभावित हुये जिन्हें 15.7 करोड़ का मुआवजा मिला।

एक रिपोर्ट के अनुसार दैवी आपदा के कारण उत्तराखंड के प्रमुख विभाग में लोकनिर्माण विभाग को 364.24 करोड़, गन्ना विभाग को 464.49 करोड़, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना को 132.42 करोड़, सिंचाई विभाग को 76.42 करोड़, राष्ट्रीय राजमार्ग विभाग को 52.85 करोड़, पंचायती राज विभाग को 44.49 करोड़, पारेषण निगम को 39.53 करोड़, शहरी विकास विभाग को 23.43 करोड़, वन विभाग को 20.41 करोड़,ग्राम्य विकास विभाग को 18.28 करोड़, कृषि विभाग को 13.91 करोड़, ऊर्जा निगम विभाग को 28.71 करोड़ और पेयजल विभाग को 10.96 करोड़ का नुकसान पहुंचा है।

राज्य आपातकालीन परिचालन केन्द्र द्वारा जारी नवीनतम् बुलेटिन के अनुसार इस साल 15 जून से लेकर 8 सितम्बर तक दैवी आपदाओं में कुल 93 लोग मृत घोषित किये गये जबकि 16 अन्य लापता है। नियमानुसार जब तक मृतक का शव नहीं मिलता तब तक उसे लापता ही माना जाता है और यह अवधि 7 साल की है। जाहिर है कि अब तक राज्य में भूस्खलन, मकान ढहने और त्वरित बाढ़ में लगभग 109 लोग जानें गंवा चुके हैं और 51 लोग घायल हुये हैं। अब तक सर्वाधिक 34 ( 21 घोषित मृत एवं 13 लापता) जनहानि रुद्रप्रयाग जिले में तथा उसके बाद पौड़ी जिले ( 9 मौतें घोषित तथा 3 मलबे में लापता) में हुयी है। राज्य के 13 में से कोई ऐसा जिला नहीं जहां आपदाओं से मौतें न हुयी हों। चार धाम यात्रा के दौरान इस साल अब तक 197 यात्री स्वर्गीय हो चुके हैं। दैवी आपदाओं और चार धाम यात्रियों के अलावा इस साल अब तक 67 लोग सड़क दुर्घटनाओं में भी मारे गये और 192 घायल हुये हैं। अगर केवल इस साल की मानसून अवधि की आपदाओं पर ही गौर करें तो राज्य में 118 बड़े पशु तथा 486 छोटे पशु मर चुके हैं। इनमें 7200 मुर्गियों का नुकसान अलग से है। इसी तरह इस मानसून में 1754 मकान आंशिक रूप से, 184 बुरी तरह और 58 मकान पूरी तरह क्षतिग्रस्त हुये हैं। रुद्रप्रयाग के अलावा प्रदेश का कोई ऐसा जिला नहीं जहां बरसात में मकान पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त न हुये हों। पिछले साल इसी अवधि में मानसूनी आपदा में 44 लोग मारे गये थे, 8 लापता थे और 40 घायल हुये थे।

बाढ, भूकम्प, भूस्खलन, हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक घटनाएं युगों-युगों से होती रही हैं। लेकिन अब इनकी आवृति बढ़ती जा रही है। इनसे बचाव का एक ही रास्ता है कि हम प्रकृति के साथ जीना सीखें। हालांकि इस साल प्रकृति का कहर उत्तराखण्ड की तुलना में हिमाचल पर अधिक बरसा है लेकिन देखा जाय तो उत्तराखण्ड की स्थिति कही ज्यादा संवेदनशील है। मसूरी और नैनीताल सहित उत्तराखण्ड का कोई पहाड़ी नगर ऐसा नहीं जो कि भूस्खलन जैसी आपदाओं से सुरक्षित हो। राज्य के 400 से अधिक गांव पहले ही संवेदनशील घोषित किये जा चुके हैं।

इसरो और रिमोट सेंसिंग के नवीनतम भूस्खलन संवेदनशीलता एटलस पर गौर करें तो उत्तराखण्ड की स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। भूस्खलन की दृष्टि से देश के सर्वाधिक संवेदनशील जिलों में उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले हैं, जिन्हें नम्बर एक और दो पर रखा गया है। जोशीमठ हमारे सामने शिमला से भी ज्वलंत उदाहरण बन कर सामने आ गया था। इसरो और रिमोट सेंसिंग ऐजेंसी द्वारा इसी साल फरबरी में भूस्खलन की दृष्टि से भारत के जिन 147 जिलों का एटलस जारी किया है उनमें 108 जिले केवल हिमालयी राज्यों के हैं जिनमें सभी 13 जिले उत्तराखण्ड के तथा 12 में से 10 जिले हिमाचल प्रदेश के हैं।

जोशीमठ भविष्य के लिये प्रकृति की गंभीर चेतावनी है। जोशीमठ जैसी ही बाकी पहाड़ी नगरों की कहानी है। आर्थिक गतिविधियों के कारण पर्यटन, तीर्थाटन के महत्व के छोट से कस्बों में आस पास के गावों की जनसंख्या आकर्षित होने लगी और ये कस्बे धीरे-धीरे नगरों में बदलने लगे। प्रशासनिक दृष्टि से ब्लाक, तहसील और जिला मुख्यालयों में जन सुविधाओं और आर्थिक कारणों से जनसंख्या बढ़ने लगी तो ये छोटे कस्बे भी नगर और महानगर बनने लगे। लेकिन इस तेजी से हो रहे नगरीकरण पर शासन-प्रशासन आंखें मूंदता गया और नगरों के सुनियोजित विकास के लिये मास्टर प्लान या नगर नियोजन की जरूरत नहीं समझी गयी। ये जितने भी पहाड़ी नगर हैं वे पहाड़ से आये भूस्खलनों पर बसे हुये हैं, जिनकी धारक क्षमता सीमित हैं। इनमें से कुछ भूस्खलन सक्रिय रहे तो कुछ सुप्त हो गये जो कि अब जनसंख्या के दबाव में जागृत हो रहे हैं। उत्तरकाशी का वरुणवत बड़ी मुश्किल से थमा है। नगरो की जमीन के ऊपर इमारतों के जंगलों का बोझ और बिना सीवरलाइन के इमारतों का मलजल सोकपिटों के माध्यम से धरती के अंदर जाने से पहाड़ी नगरों के नीचे दलदल होता गया, जैसा कि जोशीमठ में हुआ। सरकारों द्वारा जनसंख्या को एक ही कमजोर स्थान पर केन्द्रित होने से रोकने के लिये नये नगर या गांव नहीं बसाये गये।

शिमला से अधिक नाजुक स्थिति मसूरी की है। संवेदनशीलता में शिमला 61वें नम्बर पर है जबकि देहरादून का रैंक 29वां है जहां मसूरी है। इसलिये कभी भी मसूरी और नैनीताल में भी खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है। शिमला की तरह मसूरी और नैनीताल को भी अंग्रेजों ने ही पहाड़ियों पर बहुत सीमित जनसंख्या के लिये बसाया था। उत्तराखण्ड आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा कराये गये एक अन्य अध्ययन के अनुसार मसूरी के केम्प्टी फॉल, लाल टिब्बा और भट्टाफॉल सर्वाधिक खतरे वाले क्षेत्र हैं। इसका कारण भूवैज्ञानिक सुशील खण्डूड़ी ने टेक्टॉनिक डिसकंटिन्युटी और तीब्र अस्थिर ढलान माना है। इस अध्ययन में भट्टाघाट और लाल टिब्बा के उत्तर पश्चिम क्षेत्र को भूस्खलन के लिये अत्यधिक संवेदनशील बताया गया है, जबकि कम्पनी गार्डन के उत्तर, लाल टिब्बा के उत्तर पूर्व, जबरखेत के पश्चिम और क्यारकुली के दक्षिण पश्चिम के क्षेत्र उच्च संवेदनशीलता में माने गये हैं। इन क्षेत्रों में अक्सर भूस्खलन होते रहते हैं। इसी प्रकार परी टिब्बा, जबरखेत, क्यारकुली एवं भट्टा के पश्चिमी क्षेत्र, बार्लोगंज के उत्तर पश्चिम और खट्टापानी के उत्तर पूर्वी क्षेत्र को मध्यम दर्जे की संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है। इस अध्ययन में मसूरी क्षेत्र के 31.6 प्रतिशत क्षेत्र को मध्यम जोखिम या संवेदनशील श्रेणी, 21.6 प्रतिशत उच्च संवेदनशील श्रेणी और 1.7 प्रतिशत क्षेत्र को अति संवेदनशील श्रेणी में रखा गया।

 

 

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