अब नया सवाल : कब लागू होगा महिला आरक्षण

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The issue of reserving one-third seats for women in the Lok Sabha and state assemblies including Delhi is not only back on track but has also come very close to becoming a law. Under the constitutional process, it has to go to all the assemblies to get the consent of 50 percent of the state assemblies, which is now just a formality. But some questions still remain in this. The first question is when will this law come into force? And the second question is whether this law will really be implemented.–JSR

जयसिंह रावत
महिलाओं को लोकसभा और दिल्ली समेत राज्य विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का मामला न केवल पटरी पर आ गया बल्कि कानून बनने के बेहद करीब पहुंच गया है। संवैधानिक प्रकृया के तहत इसे अभी 50 प्रतिशत राज्य विधानसभाओं की सहमति लेने के लिये सभी विधानसभाओं में भी जाना है जो कि अब महज एक औपचरिकता ही रह गयी है। लेकिन इसमें अभी कुछ सवाल अभी भी बाकी हैं। पहला सवाल तो यह है कि यह कानून कब लागू होगा? और दूसरा सवाल यह कि क्या यह कानून सचमुच लागू होगा?

सन् 1952 में हुये पहले आम चुनाव में 24 महिला सदस्य लोकसभा पहुंचीं थीं। अपना संविधान लागू होने के 67 साल बाद भी सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में 542 सदस्यीय लोकसभा के लिये मात्र 78 महिलाओं (14.4 प्रतिशत) का चुना जाना अपने आप में देश की आधी आबादी की इस देश के लोकतांत्रिक शासन में अत्यन्त कम भागीदारी का एक खुला आईना ही है। नागालैंड विधान सभा के इतिहास में तो पहली बार मार्च 2023 में एक महिला हेकानी जांखलू सदस्य चुनी गयी। मीजोरम विधानसभा अब भी निरंतर महिला शून्य है। देश के कुछ राज्यों में अब भी महिला प्रतिशत 2 या तीन है।

वीना मजूमदार कमेटी से हुयी शुरूआत

राजनीति में महिलाओं का अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने से संबंधित मुद्दों पर स्वतंत्रता से पहले और संविधान सभा में भी चर्चा हुयी थी। स्वतंत्र भारत में इस मुद्दे ने 1970 के दशक से जोर पकड़ना शुरू किया। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस 1975 से पहले संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर केन्द्रीय शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय ने वीना मजूमदार की अध्यक्षता में महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी शिक्षा और रोजगार और इन प्रावधानों के प्रभाव को प्रभावित करने वाले संवैधानिक, प्रशासनिक और कानूनी प्रावधानों की जांच करने के लिये एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी की 1974 में प्रकाशित ‘‘टुवार्ड्स इक्वैलिटी’’ रिपोर्ट ने भारत में महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता से संबंधित नीतियों और चर्चाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने महिलाओं के जीवन के विभिन्न पहलुओं को संबोधित किया, जिनमें शिक्षा, रोजगार, कानूनी अधिकार और सामाजिक और आर्थिक स्थिति शामिल थी।

राजीव गांधी बो गये थे महिला आरक्षण के बीज

वीना मजूमदार कमेटी की सिफारिशों के बाद एक दशक से भी अधिक समय तक भारत की राजनीति में इस मुद्दे पर लगभग खामोशी छाई रही लेकिन इस मसले ने अचानक 1989 में तब जोर पकड़ा जब राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में बुनियादी स्तर पर आरक्षण के लिये उनकी सरकार ने नगर निकायों और पंचायतीराज में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल पेश किया। यह बिल राजीव गांधी ने लोकसभा में पारित करा भी दिया था मगर राज्यसभा में पारित न हो सका। लेकिन उसके बाद अगली नरसिम्हा राव सरकार ने संविधान का 73 वां और 74वां संशोधन पारित करा कर लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाओं में महिलाओं का आरक्षण पक्का कर लिया जो कि अब बेहतर नतीजे दे रहा है। इसके बाद तो संसद और विधानसभाओं में भी महिला आरक्षण की मांग जोर पकड़ने लगी।

पहला बिल पेश देवगौड़ा सरकार ने 1996 किया

90 के दशक के मध्य से लगभग हर सरकार ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण प्रदान करने के लिए कानून बनाने की कोशिश की है। यह बिल 2010 में राज्यसभा में पारित हो गया लेकिन आगे नहीं बढ़ पाया। दरअसल महिला आरक्षण विधेयक का उतार-चढ़ाव भरा विधायी इतिहास 27 साल पहले तब शुरू हुआ जब एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे 12 सितंबर 1996 को संसद में पेश किया। लेकिन कुछ राजनीतिक दलों के कड़े विरोध के कारण यह रद्द हो गया। विधेयक को बाद के वर्षों में कई बार संसद में फिर से पेश किया गया लेकिन तीब्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा और पारित नहीं किया जा सका। बाजपेयी सरकार ने विधेयक को 1998 में फिर से पेश किया लेकिन फिर से इसका विरोध हुआ और यह पारित नहीं हो सका। बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सन् 1999 में, विधेयक को एक बार फिर संसद में पेश किया लेकिन इसी तरह के विरोध का सामना करना पड़ा और पारित नहीं हो सका। सन् 2002 में विधेयक दोबारा पेश किया गया, लेकिन विरोध के कारण इसमें कोई खास प्रगति नहीं हो सकी।

पहले सदैव नाकाम कोशिशें होती रहीं

सन् 2004 में यूपीए सरकार ने इसे कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में शामिल किया। यूपीए सरकार के विधि एवं न्याय मंत्री हंसराज भरद्वाज द्वारा 6 मई 2008 को राज्यसभा में यह बिल पेश करने का प्रयास किया गया तो हाथापाई की नौबत तक आ गयी। कांग्रेस की महिला सदस्यों द्वारा अपने मंत्री को सदन में सुरक्षा देने का प्रयास किया गया जबकि सपा के सदस्यों ने कानून मंत्री के हाथ से बिल की प्रति छीनने का प्रयास किया गया। भारी विरोध के बावजूद सरकार बिल पेश करने में सफल तो रही मगर पारित नहीं करा सकी। यह बिल संसद के स्थाई सदन राज्यसभा में इसलिये पेश किया गया था ताकि वह कालातीत न हो जाय। इस बिल को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने दुबारा 25 फरबरी 2010 को स्वीकृत किया ताकि संसद की मंजूरी मिल सके।

69 करोड़ महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 78 द्वारा

चूंकि 2021 में होने वाली जनगणना नहीं हूयी इसलिये देश की जनसंख्या का अनुमान ही लगाया जा सकता है। वर्तंमान में देश की महिला जनसंख्या 69 करोड़ मानी जाती है। इतनी अधिक आबादी का केवल 78 महिलाओं द्वारा प्रतिनिधित्व अत्यन्त कम है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त के 25 जनवरी 2022 के एक टेलिविजन संदेश के अनुसार देश में कुल मतदाताओं की संख्या 95.1 करोड़ हो गयी है जिसमें से 49 करोड़ पुरुष और 46.1 करोड़ महिला मतदाता है।

महिला आरक्षण बिल के समर्थन में देश के दोनों ही सबसे बड़े दल भाजपा और कांग्रेस हैं। लेकिन विगत में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), बहुजन समाज पार्टी तथा कुछ अन्य क्षेत्रीय दल बिल के घोर विरोधी रहे हैं। इनमें से समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड नव गठित विपक्षी गठबंधन ‘‘इंडिया’’ के प्रमुख घटक हैं। इसलिये समझा जा रहा है कि विपक्षी गठबंधन को छिन्नभिन्न करने के लिये भी ठीक चुनाव से पहले यह मास्टर स्ट्रोक चला जा रहा है।

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