ब्लॉगशिक्षा/साहित्य

इतिहास का पहला प्रेमपत्र

 

– गोविन्द् प्रसाद बहुगुणा

साहित्य में वैसे तो प्रेमपत्र लिखने के किस्से अनेकों हैं लेकिन भारतीय साहित्य के इतिहास में संभवतः यह पहला प्रेम पत्र है जो किसी स्त्री ने अपने प्रेमी को लिखा है I वेदव्यास की परम्परा का अनुसरण अंग्रेजी के कवियों ने किया जिनमें शेक्सपीयर का नाम सबसे ऊपर है । शेक्सपीयर ने अपनी प्रेमिका के नाम एक सौ से ऊपर प्रेम गीत पत्र की ही शैली में लिखे थे…

श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध के अध्याय ५२ में रुक्मिणी ने लिखा था यह पत्र श्रीकृष्ण को , जब उसको भनक लगी कि स्वयम्बर आयोजन के बहाने से उसका भाई रुक्मी उसका विवाह शिशुपाल से करना चाहता है I श्रीकृष्ण के पराक्रम और सुंदरता के चर्चे उन दिनों आसमान पर थे अस्तु रुक्मिणी सहसा उनके प्रति आकर्षित हो गई I स्वयम्बर के आयोजन से पहले ही रुक्मिणी ने यह पत्र अपने विश्वस्त ब्राह्मण दूत के हाथ श्रीकृष्ण को भेजा था I
इस पत्र में रुक्मिणी ने अपने अपहरण की योजना स्वयं बनाई थी -लिखा था कि हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुल देवी के दर्शन करने के लिए एक बहुत बड़ी यात्रा होती है , जुलूस निकलता है जिसमें विवाह करने वाली कन्या को नगर के बाहर स्थित गिरिजा देवी के दर्शन करने जाना होता है….. ….. इशारा साफ़ था इस पत्र की एक विशेषता यह है की यह सात पदों (श्लोको) में लिखा गया है। यह सर्वविदित है कि हिन्दुओं की वैवाहिक रस्म के अनुसार वर -कन्या सात फेरे फेरते हैं । अस्तु रुक्मणी ने कृष्ण को अपने साथ सात फेरे फेरने का सीधा प्रस्ताव /न्यौता ही भेज दिया –
“श्रुत्वा गुणान भुवनसुन्दर श्रृण्वतां ते
निर्विश्य कर्णवरैर्हरतो$गतापम्।
रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे।३७।।
का त्वा मुकुन्द महती कुलशील रुप-
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्।
म्धीरा पति कुलवती न वृणीत कन्या
काले नृसिंह नरलोकमनोभिरामम्।।३८।।
तन्मे भवान खलु वृतःपतिरंग जाया-
मात्मार्पितश्च भवतो$त्र विभो विधेहि।
मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य
आराद्गो मायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष।।३९।।
पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र-
गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान् परेशः।
आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पार्णि
गृह्मातु मे न दमघोषसुतादयो$न्ये।।४०।।
श्वोभाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्गुप्तः
समेत्य पृतनापतिभिःपरीतः।
निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं
प्रसह्यमांं राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम्।।४१।।अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धू-
स्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्।
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा
यस्यां बहिर्नववधूगिरिराजमुपेयात्।।४२।।
यस्यांघ्रिपंकजरजः स्नपनं महान्तो
वांच्छन्त्युमापतिरिवात्मतमो$पहत्यै।
यर्ह्याम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं-
जह्यामसून व्रतकृशाच्छतजन्मभिःस्यात्।।४३।।”
GPB

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