*अव्यभिचारिणी* भक्ति वह है जो स्वार्थ और अभिमान त्याग कर श्रद्धा भाव से प्रभु का चिन्तन करती है
-गोविंद प्रसाद बहुगुणा
भाषा और अर्थ के स्तर पर महर्षि वेदव्यास जी ने गीता के मार्फत अद्वितीय प्रयोग किए हैं । आज गीता के १३वें अध्याय के श्लोक को पढकर मुझे जो अनुभूति हुई उसको शेयर करने का मन हुआ ,मुझे लगा कि गीता पौराणिक ग्रंथ होते हुए भी इसमें सामयिक परिस्थितियों पर कितनी तर्कसंगत प्रतिक्रियाए देखने पढने को मिलती हैं -देखिए इस श्लोक को –
मयि चानन्येनयोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।१०॥
व्यभिचारिणी भक्ति is the worst form of devotion जो आज व्यापक रूप में दिखाई दे रहा है । तीर्थस्थलों का दुरुपयोग अपने भोंडे भक्ति प्रदर्शन के लिए किया जाता है। इसमें तथाकथित *गुरु*सबसे आगे हैं।
नेता की आड़ में कई तरह के कुकर्म रोज ही होते दिखाई दे रहे हैं और जिसमें खासतौर पर कट्टर पंथी और राजनीति करने वाले लोग संलिप्त हैं।
वेदव्यास अद्भुत सूक्ष्मदर्शी चिन्तक थे ,उन्होंने अपने समय में भक्ति के नाम पर बहुत पाखंड होते देखे होंगे – भक्ति की आड़ में कई व्यभिचार होते देखे होंगे तभी तो उन्होंने गीता में श्रीकृष्ण के हवाले से अर्जुन को समझा दिया कि देखो भाई मैं *अव्यभिचारिणी भक्ति* का समर्थक हूँ., मुझे पाखंड पसन्द नहीं ।
अव्यभिचारिणी भक्ति -वह भक्ति कहलाती है जो केवल परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके श्रद्धा और भाव सहित प्रभु का चिन्तन करता है ।आजकल नेताओं और ढोंगियों को लोगों ने अपना पथ प्रदर्शक मान लिया है । रामचरितमानस में भी 9प्रकार की भक्ति का उपदेश मिलता है जिसमें नवीं भक्ति गीता के उपरोक्त मत से बहुत मिलती है –
“नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥”
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